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________________ २९४ : धर्मविदु विवेचन- एतत् तु संभवत्यस्य - यह यतित्व दीक्षा देने - बालको समव है, वह विद्यमान रहता है या टिकता है। कैसे ? सदुपायप्रवृत्तितः- सुंदर उपाय से प्रवृत्ति करने से, योग्य गुरु से दीक्षा ले इत्यादि उक्त विधि वेश करनेसे । अनुपायात् तु उपाय रहित, सिद्धिं - सामान्यत सर्वं कायोंकी सिद्धिको कार्यकी पूर्णता को, नेच्छन्ति - इच्छा नहीं करते, पण्डिताः - कार्य कारण के विभागमे कुशल | " सदुपाय से दीक्षा लेनेवाला मृतित्व के योग्य है। उपरोक्त प्रकारसे योग्य शिष्य योग गुरु योग्य विधि सहित दीक्षा ले तब वह वस्तुतः यति होगा। क्योंकि उपाय या साधन अच्छे हों तो फल भी सुंदर मिलता है। सुंदर उपाय विना पंडितजन कार्यकी सिद्धिकी इच्छा नहीं करते । क्योंकि क़हा है कि कारण विना कार्य नहीं हो । उपरोक्त रीति से ऊलटे चलनेमे जो दोष है उसे बताते हुए मध्याय समाप्त करते है यस्तु नैवंविधो मोहाचेष्टते शास्त्रवाध्या । स तान् लिङ्गयुक्तोऽपि न गृही न यतिर्मतः ||२४|| मूलार्थ- जो उपरोक्त रीतिसे न चल कर मोहके कारण शाखोल्लंघन करता है, वह यति लिंग्रधारी होने पर भी उभय भ्रष्ट है ||२४|| विवेचन - यस्तु - जिसकी सवभ्रमणा कम न हुई, नैवंविध उपरोक्त विधिसे विपरीत, मोहात्— मोह या अज्ञानसे, शास्त्रवाध्या
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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