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________________ यति सामान्य देशना विधि : २८५ मूलार्थ - जोशी लोगों उस उम प्रकार कहलावे ||२७|| विवेचन - दैवज्ञ अर्थात् निमित्तशास्त्र जाननेवालों द्वारा ऐसा ऐसा कहलावे जिससे दीक्षाकी आज्ञा दे दें । ऐसेको दीक्षा देनेसे क्या लाभ है ! उत्तर देते हैं— न धर्मे मायेति ॥२८॥ ( २५४) मूलार्थ-धर्ममें माया नहीं है ||२८|| विवेचन - धर्मका साघन करनेमें जो क्रिया की जाती है वह माया नहीं हैं। वह वस्तुतः अमाया ही है। ऐसा कैसे कहते हो ? वह कहते हैं— 2 उभयहिनमेतदिति ||२९|| (२५५) मूलार्थ - यह दोनों के हित के लिये हैं ॥ २९ ॥ `विवेचन-दीक्षाविधिमें यह जो कार्य किया जाता है उससे स्वपरका हित साधा जाता है अतः स्वपरके श्रेय व कल्याण करनेवाली दीक्षाके लिये यह कपट नहीं है । "अमायोऽपि हि भावेन, माय्येव तु भवेत् कचित् । पश्येत् स्वपरयोर्यत्र, सानुबन्धं हितोदयम् " ॥१४२॥ —जहां स्व तथा परके निरंतर हितका उदय होता है वहां माया बिना भी पुरुष कुछ मायावी हो जाता है। ऐसा करने पर भी माता पितादि निर्वाह न कर सके और दीक्षा देनेकी आज्ञा न दे ते क्या करना चाहिये। उसका उत्तर देते हैंयथाशक्ति सौविहित्यापादनमिति ||३०|| (२५६) मूलार्थ - यथाशक्ति माता-पितादिका समाधान करे ॥३०॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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