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________________ यति सामान्य देशना विधि : २८३ करनेसे उससे अधिक कर्मबंधन होता है । इस प्रकार साधुका आचार उसे कहा जाय ऐसा साधु आचार कहने पर भी उसका मन न डिगेतो उसकी भलीभांति परीक्षा लेना चाहिये । कहा है कि 17 65 'असत्याः सत्यसंकाशाः, सत्याश्चासत्यसन्निभाः । 'दृश्यन्ते विविधा भावाः, तस्माद् युक्तं परीक्षणम् ॥१४७॥ " अतथ्यान्यपि तथ्यानि दर्शयन्त्यतिकौशलाः । चित्रे निम्नोन्नतानीव, चित्रकर्मविदो जनाः ॥१४८॥ — कितने ही असत्य पदार्थ सत्य जैसे दिखते हैं, कितने ही सत्य पदार्थ भी असत्य समान दिखते हैं । इस प्रकार विविध प्रकारके भाव दिखाई देते हैं, अतः परीक्षा करना ( सत्य व असत्य क्या है ? इसकी ) योग्य ही है ॥ जैसे कुशल चित्रकार चित्रमें ऊंचा व नीचा दोनों भाव बतानेमें समर्थ होते हैं वैसे हो अति कुशल पुरुष असत्यको सत्य और अतथ्यको तथ्य वस्तुकी तरह बता सकते हैं । उसमें सम्यक्व, ज्ञान, दर्शन, चारित्रके अर्गत उसकी कैसी कैसी परिणति तथा भाव है उसकी उस उस प्रकारसे परीक्षा करनी चाहिये | परीक्षाकाल प्राय छ मासका है । उस प्रकारके पात्रकी 1 अपेक्षासे न्यून व अधिक समय भी लग सकता है । जिसने उपधान न किया हो उस पुरुषको सामायिक सूत्र कंठसे खुद देना अर्थात् पढाना चाहिये । पात्रताकी अपेक्षासे दूसरा भी सूत्र पढाना चाहिये । तथा - गुरुजनाद्यनुज्ञेति ॥ २३॥ ( २४९) मूलार्थ - माता - पितादि गुरुजनोंकी आज्ञा लेना । *
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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