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________________ २७० : धर्मविन्दु ७. प्रवचनवत्सल!- चतुर्विध सकल संघका यथायोग्य वात्सल्य करनेवाला। ८ सत्त्वहितरत:- विविध उपायोंसे सामान्यतः सर्व जीवोका हित करनेमें तत्पर । ९. आदेयः- जिसका वचन व चेष्टा ग्रहणीय हो। १०. अनुवर्तक:- भिन्न भिन्न स्वभाव व गुणवाले प्राणियोंमें गुणकी वृद्धि करनेके लिये उनका उस विधिसे अनुकरण करनेवाला। ११. गंभीरः- रोष व संतोषमें जिसका हृदय न हो। १२. अविषादी- परीषह आदि दुःख पाकर छ कायके संरक्षणमें दीन बननेवाला नहीं-उससे शोक न पानेवाला। १३. उपशमलब्ध्यादिसंपन्नः-दूसरेको शांत करनेके लिये समर्थ ऐसी लब्धिवाला-तथा उपकरणलब्धि और स्थिर हस्तलब्धि सहित । १४. प्रवचनार्थवक्ता- आगमके यथार्थ अर्थको कहनेवाला । १५. खगुर्वनुज्ञातगुरुपदः-अपने गुरु या गच्छनायक द्वारा जिसे गुरुपद अर्थात् आचार्यपदवी दी गई हो। ये गुरुके १५ गुण है। ___गुरुमै उच्च गुणोकी आवश्यकता है। इन १५ गुणोंके गुरुमें होनेसे शिष्यमें अच्छे गुण आते हैं। गुरुपरंपरासे दीक्षित गुरुसे ही दीक्षा लेना उचित है। गुरुकुलमें रहनेवाला होना चाहिये । वह संप्रदायके आचार-विचारका जानकार होता है। उसका एक भी महाव्रत सारे समयमें खडित न हुआ हो। सूत्र व अर्थका ज्ञान व क्रिया जाने व तीर्थकर प्रणीत आगम रहस्य जानता हो। कहा है कि
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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