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________________ २६८ : धर्मचिन्दु १४. श्रद्धावान-धर्मके प्रति श्रद्धा आवश्यक है। उदर पूर्तिके लिये साधुधर्म वृथा है। १५. स्थिर-प्रारंभ किया हुआ कार्य विन आने पर भी न छोडे । अनिष्ट संयोग आने पर जो वैराग्य आता है वह स्थिर नहीं रहता। संयम कैद समान लगता है। क्षणिक चैराग्य स्थिर नहीं रहता । १६. दीक्षा लेनेको उपस्थित-गुरु शिष्यों को न ढूंढे, पर वैराग्य होनेसे शिष्य ही गुरुके सामने दीक्षा लेने आवे । आत्म समर्पण करनेवाला आज्ञाकारी भी होता है । साथ ही गुरुकै प्रति उसमें भक्ति होना आवश्यक है। दीक्षाके योग्य व्यक्तिके गुण केह कर अब योग गुरुके गुण -बताते हैगुरुपादास्तु इत्थंभूत एव-विधिप्रतिपन्नप्रव्रज्यः, समुपासितगुरुकुला, अस्वलितशीला, सम्यगधीतागमः, तत एव विमलतरवोधात् तत्त्ववेदी, उपशान्ता, प्रवचनवत्सलः, सत्त्वहितरतः, आदेयः, अनुवर्तक, गम्भीस, अवि. षादी, उपशमलव्ध्यादिसंपन्नः, 'प्रवचनार्थवक्ता, स्वगुर्वनुज्ञातगुरु पदश्वेतीति ॥४॥ (२३०) में मूलार्थ-ऐसे गुणवाला साधुशुरुपदके योग्य है-१ विधि-वत् दीक्षित, २ गुरुकुलका सम्यक उपासक, ३ अखंड शील- वाला, ४ आगमका सम्यक अध्ययन करनेवाला, ५ उससे
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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