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________________ धर्म बिन्दु : २६६ हैं । यतिधर्म दुर्गम है । इसमें संयम, परोपदेश, ब्रह्मचर्य, देशाटन, सर्दीगर्मी, परीषह सहना, अभ्यास तथा तप आदि करना पडते हैं । योग्य व्यक्ति साधु बनकर उसे चमकाता है । यह त्याग है- ससारकी जिम्मेदारियां से बचने के लिये नहीं पर साधुधर्मकी अधिक जिम्मेदारी सहनेके लिये । अतः उसके गुण आवश्यक १. आर्यदेशमें जन्म के बार में ऊपर विवेचन किया है । २. विशिष्टजाति व कुलवाला - माता पिता उच्च कुल व जाति के हो । कुलीन वरानोंमें उदारता, दाक्षिण्यता आदि स्वाभाविक रीति से गुण होते हैं । 1 ३. क्षीणप्राय कर्ममल - ज्ञानावरणीय आदि कर्म बहुत अंशमें क्षय हो जानेसे उसे ज्ञान होता है व राग द्वेष कम होता है अतः वह योग्य है । ४. निर्मल बुद्धि - ज्ञानसे तथा राग-द्वेष न होनेसे बुद्धि भी निर्मल होती है । मन शांत होता है और आत्मज्योतिसे विशुद्ध होता है। ५. संसारकी असारता को समझनेवाला - यह दो प्रकारसे अनुभव व उपदेश से ज्ञात होती है | उपदेशसे पूर्वभव के संस्कार - के कारण वैराग्य होता है । गृहस्थाश्रम पालने से तथा असारता व अनित्यता के अनुभव से विशेष वैराग्य पैदा होता है । मनुष्य भव दुर्लभ, मृत्यु निश्चित, संपत्ति चंचल, विषय दुखसे भरपूर, कर्मके भयकर फल आदिका अनुभव हो अथवा उनका ज्ञान हो । केवल शास्त्रीय ज्ञान ही सब कुछ नहीं होता । इससे पदार्थों परसे मोह हट जाता हैं और तब
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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