SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 289
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्थ विशेप देशना विधि - २५३ "एतास्तावदसंशयं कुशदलप्रान्तोदविन्दूपमा, लक्ष्म्यो बन्धुसमागमोऽपि न चिरस्थायी खलप्रीतिवत् । यच्चान्यत् किल किञ्चिदस्ति निखिलं तच्छारदाम्भोघरच्छायावञ्चलतां विभर्ति यदतः स्वस्मै हितं चिन्त्यताम् ॥१३७॥ -कुश या दर्भपत्रके किनारे रहे हुए जलकी बुंदके समान लक्ष्मी है यह निःसंशय वात है। वन्धुजनोका समागम भी दुष्टोंकी प्रीतिके समान चिरस्थायी नहीं है। इस मंसारमे जो कुछ भी अन्य वस्तु है वह शरद ऋतुके बादलकी छायाके समान अस्थिर है, अतः हे भव्य जनो ! अपने हितकी चिंता करो। क्योंकि ससार भणमंगुर तथा मसार है इसलिये अपने आत्माके हितके लिये यथाशक्ति धर्मकी आराधना करो। · तथा-अपवर्गालोचनमिति ॥९०॥ (२२३) मूलार्थ-और मुक्ति (मोक्ष)का विचार करे ॥१०॥ विवेचन-अपवर्गस्य- मुक्तिका, आलोचनम्-विचार । सर्व गुण उसमें है अतः वह उपादेय या ग्राह्य है ऐसी भावना करना । मोक्षकी भावना करे। वही एक ग्राह्य वस्तु है। संसारकी बुराइका विचार करनेके साथ उच्च व प्राप्य वस्तुका विचार करनेसे ही बुरी वस्तु त्यागी जा सकती है। अत. मोझमें सब गुण है ऐसी भावना रखे। जैसे- . . . "प्राप्ताः श्रियः सकलकामदुधास्ततः किं, - दत्त पदं शिरसि विद्विषतां ततः किम् ?। संपूरिताः प्रणयिनो विभवस्ततः किं, कल्पं भृतं तनुभृतां तनुमिस्तत. किम् ? ॥१३९॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy