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________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि :२५१ विवेचन-क्रोधादि दोषके विपाकका विचार करके हृदय व अंतःकरणको शुद्ध करना । उसे उन दोपोंको हठाकर प्रशंसनीय बनाना चाहिये । क्रोध, मान, माया व लोभ- क्रमश. प्रीति, विनय, मित्रता, और सर्वस्वका नाश करनेवाले हैं-आदि विचारोंसे इन चारों कषायोंको दूर करे अन्यथा महादोष लगता है। कहते हैं कि-- "चित्तरत्नमक्लिष्टमान्तरं धनमुच्यते । यस्य तन्मुपितं दोपैः, तस्य शिष्टा विपत्तयः" ॥१३॥ --क्लेश रहित चित्तरत्न ही मनुष्यका सान्तर घन है। जिसका चित्तरत्न (यां यह धन) क्रोधादि दोपौसे लूट गया है उसे सब विपत्तियां घेरती हैं। अत. अंत करण शुद्ध रखे। तथा भवस्थितिप्रेक्षणमिति ॥८८॥ (२२१) मृलार्थ-और संसारकी स्थितिका विचार करे ।।८८॥ विवेचन-भवस्थितेः-- संसारके रूपको, प्रेक्षणं- अवलोकन । क्षण क्षणके परिवर्तनोको विचारे। उनका अवलोकन करे। जैसे कि-- "यौवनं नगनदास्पदोपमं, शारदाम्बुदविलासिजीवितम् । स्वप्नलब्धधर्मावभ्रमंधनं, स्थावरं किमपिनास्ति तत्त्वतः॥१३५॥ "विहां गदर्भुजहमालयाः, संगमा विगमदोपदूपिताः। संपदोऽपि विपदा कटाक्षिता नास्ति किञ्चिदनुपद्रवंस्फुटम् ॥१३६॥ ----युवावस्था पर्वतकी नदीके समान चंचल है, मानवजीवन शरद् ऋतुके बादलोंके विलास समान अस्थिर है, धन या द्रव्य त्वममें मिले हुए वैभव समान है अतः इन सब जड पदार्थोंमें वस्तुत कोई भी पदार्थ स्थिर नहीं। ये सब वस्तुएं चंचल, अस्थिर व क्षणभंगुर है।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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