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________________ २३४ : धर्मविन्दु न बन पडे उसके प्रति शुद्ध भावना रखे "मैं करूं" ऐसा भाव रखे, : जिससे ऐसे सदनुष्ठान करनेके समान ही फलप्राप्ति होती है। निरंतर उच्च भावना रखना । सर्वविरति आदिका सोचना, जैसे-- " अपूर्व अवसर एवो क्यारे आवशे, थइशुं वाह्य अभ्यंतर निम्रन्थ जो; सर्व संबंधनां तीक्ष्ण बंधन छेदीने, विचरशुं क्व महापुरुषने पंथ जो।' अनुष्ठानका फल अनुमोदनसे-भावनासे भी मिल जाता है कहा है कि- "नार्या यथाऽन्यसत्तायास्तत्र भावे सदा स्थिते । तद्योगः पापचन्धाय, तथा धर्मेऽपि दृश्यताम् " ॥१२०॥ -~-जो स्त्री अन्य पुरुषमे आसक्त है और भावनासे उसे हर समय चाहती रहती है उसकी अपने पति व कुटुम्बकी सेवाभक्तिमें प्रवृत्ति होने पर भी उसको पापचय ही होता है। उसी तरह धर्ममें भी समझना अर्थात् सावध व्यापार करते हुए तथा श्रावक धर्म पालन करते रहने पर भी सर्व विरतिकी भावना होनेसे उस प्रकारके अनुष्ठान तुल्य फल मिलता है। तथा-तत्कषु प्रशंसोपचाराविति ॥५७॥ (१९०) , मूलार्थ-और अशक्य अनुष्ठान करनेवालेकी प्रशंसा व उपचार करना चाहिये ॥५॥ विवेचन-तत्कर्तृघु- अपनी आत्माकी अपेक्षा जो अनुष्ठान: अशक्य है उसे करनेवाले पुरुषसिंहका, प्रशंसोपचारी- बार बार
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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