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________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि : २३१. ___ वहां मंदिरमें जाकर फल, फूल तथा धूप, दीप आदिसे प्रभुकी सेवा भक्ति व पूजा करना चाहिये । __ . ततो भावतः स्तवपाठ इति ॥४९॥ (१८२) . मूलार्थ-तव भावसे स्तोत्र पाठ या स्तवन आदि करना चाहिये ॥४९॥ विवेचन-जैसे दरिद्री व्यक्तिको लक्ष्मीका भंडार मीलने पर संतोष होता है, ऐसा प्रभुके पूजनसे सतोप पाकर भावना सहित गंभीर अर्थवाले, प्रभुके गुणोले वर्णनवाले, भक्ति तथा पूज्यभाव प्रदर्शन करनेवाले स्तवन व स्तोत्र आदिका उचित ध्वन्सेि उच्चार करना चाहिये । अथवा सद्भूत गुणोको प्रगट करनेवाले नमस्कार भादि स्तवनोंसे प्रभुकी स्तुति करना चाहिये। ततः चैत्यसाधुवन्दनमिति ॥५०॥ १८३) मूलार्थ-तव अरिहंत विंब व साधुका वन्दन करना चाहिये ॥५०॥ विवेचन-प्रभुके दर्शन, पूजन, स्तवन आदि करके अन्य अरिहंत विवोंको तथा भाव अरिहंत, द्रव्य अरिहंत व नाम अरिहंत-सवको वन्दन करे तथा साधुओको और व्याख्यान आदिके लिये आये हुए वंदनीय मुनिराजोको वन्दना-नमस्कार करें। वंदनका अर्थ वंदन आदिके प्रसिद्धरूपसे साधुवंदन करना चाहिये । प्रभुवंदन तथा तत्पश्चात् क्या करना सो कहते हैं ततः गुरुसमीपे प्रत्याख्यानाभि व्यक्तिरिति ॥५१॥ १८४)
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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