SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 263
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ गृहस्थ विशेप देशना विधि : २२७ तथा- धर्मचिन्तया स्वपनमिति ॥४२॥ (१७५) मलार्थ और धर्मचिन्तन करते हुए सोना चाहिये ॥४२॥ विवेचन-धर्म चिन्तन कैसे करना सो कहते हैं"धन्यास्ते वन्दनीयास्ते, तस्त्रेलोक्यं पविनितम् । येरेप भुवनक्लेशी, काममल्लो विनिर्जितः" ॥११॥ -जिन्होंने जगत्को कष्ट देनेवाले कामदेवको जीता है वे धन्य हैं, वे वंदनीय हैं तथा उनके द्वारा यह तीनो लोक पवित्र हुए हैं। थे तथा ऐसी शुभ भावनाओंको सोचते हुए सोना चाहिये । क्योंकि शुभ भावना व शुभ चिंतन करते हुए सोया हुआ मनुष्य उतने समयके लिये शुभ परिणामवाला रहता है। तथा-नमस्कारेणाववोध इति ॥४३॥ (१७६) मूलार्थ-नमस्कार मन्त्र कहते हुए जागना चाहिये ॥४३॥ विवेचन-नमस्कारेण- सर्व कल्याणरूप नगरके श्रेष्ठी (नगरसेठ) ऐसे पचपरमेष्ठि दाग अधिष्ठित 'नमा अरिहंताणं' आदि शब्दोंवाला प्रख्यात रूपवाला नवकार मंत्र, अवबोध- निदात्याग। प्रातःकालमें ऊठते हुए निदात्यागके समय नमस्कार मंत्रका स्मरण करना चाहिये। परम कल्याणकारी अरिहत आदि पदोंको नमस्कार करनेवाला यह पदस्मरण करते हुए उठना चाहिये । यह परमेष्ठि नमस्कार महागुणवान है । कहा है कि---... 'एर पञ्चनमस्कारः, सर्वपापप्रणाशनः। । मगलानां च सपा, प्रथमं भवति मगलम् ' ॥११७॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy