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________________ २१८ : धर्मविन्दु दर्शाने के लिये कंकर आदि पुद्गलको उसकी ओर फेंकना ।।५।। देशवत दिग्बतका एक भाग है । दिगनतमें दश दिशाओंका परिमाण करते हैं। देशव्रतमें घर, ग्राम आदि संबंधी जाने-आनेकी सीमा बांधते हैं। इसका अभिप्राय गमनागमनसे प्राणिनाश होता है, वह न हो । अतः स्वयं न जाकर दुसरेको मेजे तब भी वही फल (प्राणनाश) होता है । उलटा स्वयं जानेसे अधिक अच्छा है। इससे यतनापूर्वक जाना-आना होनेसे इर्यापथिकी शुद्ध होती है। सेवकके जानेसे वह अशुद्ध होगी। इसमें प्रथम दो अतिचार तो अपक्क बुद्धि या सहसात्कारसे होते हैं तथा अंतिम तीनो किसी बहानेसे दूसरेको बतानेसे होते हैं। इस बारेमें वृद्ध पुरुष इस प्रकार कहते हैं दिग्बत संक्षेपसे देशावकासिक होता है। इस प्रकार यदि प्रत्येक अणुव्रतका संक्षेप किया जावे तो होता है और उससे भिन्न नत होनेसे बतकी संख्या १२ है, इससे विरोध होता है अर्थात् व्रत बढ जाते हैं। अत. इसके अतिचार मो दिगवतके अतिचारों के अनुसार ही हैं। इस शकाका समाधान इस प्रकार हैं-अन्य व्रतोके संक्षेपको देशावकासिक कहते हैं, अतः उसके अतिचार भी उनके अनुसार होते हैं। जैसे प्राणातिपात आदिका संक्षेप करनेसे बन्ध आदि अतिचार यथार्थतः उसी प्रकार संभवत होते हैं। दिगवतके संक्षेपसे क्षेत्रके कम हो जानेसे शब्दानुपात आदि अतिचार होते हैं। अतः मेद होनेसे कहे गये हैं। सब जगह व्रतभेद होनेसे विशेष अतिचार कहनेकी आवश्यकता नहीं । जैसे रात्रिभोजन आदि व्रतमें उसके अतिचार नहीं बताये गये।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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