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________________ गृहस्थ विशेष देशना विधि :२०३ भी अतिचार ही है क्योंकि संख्यामें वृद्धि होनेसे भग नहीं भी होता मतः भंगाभंगसे अतिचार हुआ। . ___ कुप्य-आसन- शय्या आदि घरके उपकरण- इसका जो परिमाण किया हो उससे संख्यामें अधिकता करनेसे व्रतभग होता है पर उसका रूप अथवा आकार वदल कर वही रखनेसे अतिचार लगता है। उदाहरणार्थ- यदि किसीने तावे या पीतलके दस पात्र रखे वे किसी प्रकार वढ जावे तो दो दोका एक एक पात्र करावे जिससे व्रतभंग न हो। इस पर्यायान्तरसे अपनी संख्या पूर्ण करनेसे तथा स्वाभाविक संख्या या वस्तुसे अधिक हो जानेसे भंगाभंग हुआ मतः यह अतिचार है। कुछ आचार्य कहते हैं कि जिसे अधिक पात्रादिककी आवश्यकता हो वह 'मैं इनको ग्रहण करूंगा' ऐसा विचार कर किसी अन्यको उन पात्रोंको अपने परिमाणकी अवधि तकके लिये रखनेको कहे । दुसरेको मत देना ऐसी व्यवस्था करावे तो यह अतिचार लगता है। इनके प्रमाणका अतिक्रम करनेसे अतिचार लगता है यह प्रगट मर्थ है। अतिचारको विशेषतः समझानेके लिये यहां मिलाने तथा बांटनेकी भावना बताई है । क्षेत्रादि परिग्रह नौ प्रकारका है पर उसे पंच संख्यक बनानेके लिये सजातीयताको आपसमें मिला दिया है। शिप्य हितके लिये प्रायः पाच पाच अतिचार होनेसे यहा भी पांच मतिचार ही गिनाये हैं। परिग्रह परसे मोहको कम करनेके लिये यह पाचवा गुण अणुव्रत है इससे प्रमाण की हुई संख्यासे मनुष्य संतुष्ट हो सकता
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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