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________________ १९२ : धर्यविन्दु ४: हीनाधिकमानोन्मान-स्वभाव अथवा वस्तुतः नाप या तौलसे कम अथवा अधिक नाय और तौलकी वस्तुएं-सेर आदि तोले या भरनेके नापको जितना चाहिये उससे कम अथवा अधिक लिया जावे।। ५. प्रतिरूपकव्यवहार-शुद्ध बीहि या घृत देनेके स्थान पर उसके सदृश दिखनेवाले पदार्थ अथवा मिलावटसे देना-उसका विक्रय करना--अधिककी कीमत लेकर कम देना या अच्छा नमूना बताकर हल्की वस्तु देना । प्रतिरूपक-समानरूपवालीका व्यवहार-व्यापार। ___ यहां स्तेनप्रयोगमे यद्यपि 'चोरी नहीं करूगा, न कराऊंगा' ऐसे बतका भग होता है पर स्वतः चोरीका त्याग करनेवाला दूसरेको प्रेरणा देता है वह अतिचार ही है। जैसे 'आजकाल निरुद्यमी क्यो हो यदि खाने पीनेको न हो तो मै देता हू, यदि तुम्हारे चोरीके मालको बेचनेवाला न हो तो मै बेच दूं' आदि वचनोंसे चोरोको उत्तेजन देना तथा अपनी कल्पनासे चोरीका त्याग करना, व्रतकी सापेक्षताके कारण अतिचार है। चोरोद्वारा चुराई हुई वस्तुओंको लोभसे चुपकीसे लेनेवाला पुरुष भी चोर ही है । कहा है कि-- ___ "चोरश्वोरापको मन्त्री, भेदज्ञः प्राणकक्रयी। । अन्नदः स्थानदश्चैव, चौरः सप्तविधः स्मृतः ॥१०७॥ . । '---चोर, चोरी करानेवाला, चोरीकी व्यवस्था करनेवाला, चोरकी गुप्त बात जाननेवाला या जानकर सहायता करनेवाला,
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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