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________________ १८२ : धर्मविन्दु अब अतिचार कहते हैं विचिकित्साऽन्यदृष्टिप्रशंसासंस्तवाः सम्यग्दृष्टेर तिचारा इति ॥ २१ ॥ ( ९५४) शङ्काकाङ्क्षा मूलार्थ - शंका, कांक्षा, विचिकित्सा, अन्य दर्शनकी प्रशंसा व परिचय करना - ये छ सम्यगृहष्टिके अतिचार है ॥२१॥ ; विवेचन - यहा शंका, काक्षा तथा विचिकित्सा के लक्षण व व्याख्या " ज्ञानाद्याचारकथनमिति ॥ ११ ॥ (६९ ) " सूत्रमें कहे जा चुके हैं। जैनधर्म या वीतराग प्रणीत धर्ममें शंका करना शंका है। दिगवर आदि किसी भी अन्य दर्शनके अंगीकार करनेकी आकांक्षा करना कांक्षा है | तथा बुद्धिभ्रम - फलप्राप्ति का आदिको विचिकित्सा कहते हैं । अन्यदृष्टि अर्थात् सर्वज्ञ प्रणीत दर्शनसे भिन्न शाक्य (बुद्ध), कपिल, कणाद, अक्षपाद आदि द्वारा प्रणीत शास्त्रो व उनके अनुसार चलनेवाले लोगोकी प्रशंसा करना उनका परिचय करना - ये दो अतिचार हैं। जैसे यह पुण्यवंत है, इनका जन्म उत्तम है, ये दयालु हैं - आदि शब्द कहना - प्रशंसा करना है । संस्तव अर्थात् सहवास सहित परिचय - जो वस्त्र, भोजन, दान, आलाप आदि लक्षणोवाला है-करना संस्तव अतिचार है । ये पांचों अतिचार सम्यग्दृष्टि के है । ये सब अतिचार सम्यगदर्शनकी विराधनाके प्रकार हैं, कारण कि इससे शुद्ध तत्त्वश्रद्धा में बाधा उत्पन्न होती है ।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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