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________________ १७० : धर्मविन्दु ही उसकी प्रवृत्ति है और वह उसे रोकता नहीं || गुरुको अनुमोदना दोष नहीं आता वह कैसे ? कहते हैं— गृहपतिपुत्रमोक्षज्ञातादिति ॥ १३॥ (१४६) मूलार्थ - गृहपति पुत्रको मुक्त करानेके दृष्टांसे ज्ञात होता है ||१३|| विवेचन-निम्न कथानकमें गृहपति नामक गृहस्थने राजगृहसे अपने एक पुत्रको मुक्त कराया, उस दृष्टांत परसे ऐसा ज्ञात होता है। उसका भावार्थ कथानक परसे समझमें आ सकता | वह कथानक इस प्रकार है [गृहपतिका कथानक ] मगध नामक एक देश था, जिसमें स्त्रियोंके कटाक्षसे अप्सराओके विलासको भी नीचा देखना पडे उससे वह सारा देश J 1 रमणीय था। वहा हिमालय पर्वत जैसे शुभ्र महल थे। उस महलके 1 t उच्च शिखरोंसे शरद् ऋतुके श्वेत मेघ जैसा शोभायमान वसंतपुर नगर दिखाई देता था । उसका प्रतिपालक जितशत्रु नामक राजा था । सेवा करने के समय जब कई राजी उसे एकसाथ मस्तक नमाते थे तो उनके मुकुटोंमें रहे हुए माणिकोंकी किरणोंसे उसके चरणकमले हुए दिखते थे। अपनी प्रचंड भुजासे तलवार द्वारा उसने अपने शत्रुके मदोन्मत्त हाथियोंके कुंभस्थलको मैदा था, वह यथार्थ रक्षक 1 " था। उसके धारिणी नामक रानी थी, जो मनुष्य मात्रके नेत्र तथा 1 मनको हरण करनेमें समर्थ थी । वह अपने पूर्वभव कृत पुण्यके
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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