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________________ गृहस्थ देशना विधि . १४३ विवेचन-शुद्ध-परिणामकी उत्कृष्ट शुद्धि पर, वन्धभेदकयनम्-बंधके मेदका वर्णन। श्रोताके परिणाम उत्कृष्ट रीतिसे शुद्ध हो गये हों, उसे अनेकान्तवाद पर पूर्ण श्रद्धा हो जाने तब उसे बंधके ८ मूल प्रकृतिमेद तथा ९७ उत्तर प्रकृतिमेदका वर्णन करना चाहिये । ८ भेदोंके क्रमश उत्तरभेद ५, ९, २, २८, ४२, ४, २ और ५ हैं जो कुल ९७ हैं। जो 'बन्धशतक' थादि ग्रन्थ तथा ‘कर्मग्रन्थो में वर्णित हैं। इन प्रकृतिबंधका स्वभाव तथा उसका स्वरूप समझाने। तथा-वरवोधिलाभप्ररूपणेति ॥६७|| (१२५) मूलार्थ-श्रेष्ठ बोधि वीजके लाभकी प्ररूपणा करे ।।६७|| विवेचन-सत्य वस्तुको सत्य जानना तथा असत्य वस्तुको असत्यरूपमें पहचानना तथा उसकी यथार्थ श्रद्धा होनेसे समकितकी प्राप्ति हुई कहलाती है। तीर्थकर नामकर्म उपार्जित करनेका कारणभूत वोधिबीन सामान्य समकितसे श्रेष्ठ है। अथवा द्रव्य समकितसे भाव समकित श्रेष्ठ है। उस उत्तम समकितकी प्ररूपणा करना चाहिये । उसका पूर्ण वर्णन करे। उसके हेतु, स्वरूप व फलका मुमुक्षुओंके सामने वर्णन करे। बोधिबीजके प्राप्तिका हेतु बताते हैंतथा-भव्यत्वादितोऽसाविति ॥६८।। (१२६) मूलार्थ-उस प्रकारके भव्यत्वादिकसे उस समकितकी प्राप्ति होती है ॥६८॥
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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