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________________ ९४० : धर्मविन्दु हिंसा, व्यभिचार आदि अशुभ कर्म या देवताको नमन, स्तवन आदि शुभ कर्म जो कि देहद्वारा किये जाते हैं तो उस शुभ, अशुभ कर्मका फल किसी दूसरेको भोगना नहीं पडता । आत्मा व शरीर भिन्न है तो शरीर के कर्मों का फल शरीरको तथा आत्माके कर्मो का फल आत्माको हो । पर वस्तुत सुख, दुःख आत्माको होता है । अत जब तक कर्मसहित आत्मा है तब तक आत्मा व देह पूर्णतः भिन्न नहीं है जो ऐसा न हो तो कृतनाश (किये हुए कर्मका नाश ) तथा अकृत अभ्यागम ( न किये हुएका आना ) ऐसे दो दोष उत्पन्न हो जाते हैं, अतः शरीर व आत्मा मिले हुए हैं - और raat किया हुआ दूसरेको भोगना होता है । . तथा - आत्मकृतस्य देहेनेति ||६२|| (१२० ) मूलार्थ - और आत्माद्वारा किये हुए कर्मका उपभोग देहसे नहीं हो सकता ||६२॥ विवेचन - आत्मा व देहको सर्वथा भिन्न मानें तो आत्माद्वारा किये हुए कामका - शुभ, अशुभ अनुष्टानका फल इहलोक व परलोक में शरीर नहीं भोग सकता । आत्माद्वारा किया हुआ कम भिन्न वस्तु होनेसे न करनेवाला शरीर उसे नहीं भोग सकता । यदि शंकाके तौर पर ऐसा ही मानें तो उसमें क्या दोष हैं ? कहते हैं— दृष्टेष्टवाति ||१३|| (१२१) मूलार्थ - दृष्ट व इष्ट गलत सिद्ध होता है ॥ ६३ ॥ विवेचन - दृष्टस्य -- सब लोगोंको प्रत्यक्ष दिखनेवाला देहके
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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