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________________ १२४ : धर्मयिन्दु तच्छुद्धौ हि तत्साफल्यमिति ॥४१॥ (९९। मूलार्थ-तापशुद्धि होनेसे ही कपशुद्धि व छेदशुद्धिकी सफलता है ।।४०॥ विवेचन-तच्छुद्धौ-तापशुद्धि होने पर, तत्साफल्यम्-कष व छेदका सफलताभाव है। - यदि तापमेंसे शुद्ध निकले तो कर्ष व छेद भी उपयोगी होते हैं। सूत्रका चिंतन (ध्यान ) व अध्ययन विधिमार्ग है। उनका फल कर्म निर्जरा है। हिंसा आदिका प्रतिषेध किया हुआ है जिसका फल नये कर्मकी उत्पत्तिका निरोध करना है। यह विधिनिषेध कष है और इस विधि-निषेध मार्ग (कष )का पालन करनेके लिये जो, बाह्य शुद्ध चेष्टा कही है वह छेद है। यदि विधि व निषेध दोनो न हो तो इनको पैदा करे और, उत्पन्न हुए हों तो पालन करनेसे बाह्य चेष्टाकी शुद्धि फलवती होती है। यदि आत्मा अपरिणामी हो तो उसमें पूर्वोक्ता लक्षणवाले कष व, छेद अपना कार्य करनेमें असमर्थ होते हैं उससे वे तापशुद्धि होनेसे सफ़लताको प्राप्त होते हैं अन्यथा नहीं क्या तब वे दोनों (कष व छेद), निष्फल होगे ? कहते हैं फलवन्तौ च वास्तवाविति ॥४२॥ (१००) .. मूलार्थ-वे दोनों फलवान हों तभी वास्तविक (सत्य) है। विवेचन-कष व छेदका फल मिल सके तो ही वे सत्य गिने जावे, क्योकि साध्यवस्तुको करनेवाली क्रियाको ही सन्तजन सत्य वस्तु कहते हैं । कष व छेदका फल तापशुद्धि पर रहा हुआ है।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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