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________________ १२२: धर्मवन्दु दोनो कप व छेदके बाद उनका परिणामी रूप कारण जो जीवादि लक्षण भाव हैं उनकी प्ररूपणा करना श्रुतधर्म परीक्षाके अधिकारम ताप कहा गया है। जैसे स्वर्ण वहा होने पर भी उसके भिन्न भिन्नरूप या स्वरूप होते हैं अर्थात् वह द्रव्यसे नित्य, पर पर्यायसे अनित्य है, उसी भाति जीवादि पदार्थ जिस शास्त्रमं द्रव्यार्थिक नयस नित्य-न च्यवे न उत्पन्न हो- (न मरे, न पैदा हो) तथा पर्यायार्थिक नयसे अनित्य-अर्थात् क्षण क्षणमे स्वभावकी भिन्नतावाला हो, कह गये हो वह शास्त्र तापशुद्ध है ऐसा जानना । अर्थात् जीवादि पदार्थ नित्य व अनित्य दोनों है, जैसे स्वर्ण बदलता भी है वह नहीं भी बदलता। जिस शास्त्र या धर्ममे ऐसा कहा है वह तापशुद्ध है। इसक परिणाम स्वरूप जहा आत्मा आदिके ऐस अशुद्ध पर्यायका निरोध करनस ध्यान, अध्ययन आदि अन्य शुद्ध पर्यायके प्रगट होनेस कष ( विधि-निषेध ) और बाह्य शुद्धिकी चेष्टाके लक्षणवाला छेद कहा गया है वह सभव है, अर्थात् तापशुद्धि होनेसे हो कष व छेद शुद्धि बराबर है अन्यथा बराबर नहीं । कष, छेद व ताप कौन सबसे बलवान है । इसके उत्तरमे कहते है-- अमीषामन्तरदर्शनमिति ॥३८॥ (९६) मूला4-इनका (तीनों परीक्षाका ) परस्पर अंतर बताना। विवेचन-अमीपां-परीक्षाके तीनो प्रकारोका पारस्परिक, अन्तरस्य-सामर्थ्य, असामर्थ्य । - परीक्षाके इन तीनो प्रकारोंमें पारस्परिक अंतर बतावे। उनका
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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