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________________ वास्तवमें प्रतिष्ठित करनेके लिये यह सुहावना समय मत गुमाना।' वे उत्कंठित होकर पूछने लगेः " भगवन् ! धर्मका फल क्या? वैदिक धर्मके और जैनधर्मके फलमें क्या अंतर है?" ___आचार्यजीने समाधान कियाः " वत्स | सकामवृत्तिवाले मनुष्यको धर्मके फलस्वरूप स्वर्गकी प्राप्ति होती है और निष्कामवृत्तिवालेको 'भवविरह ' याने संसारका अंत होता है। जैनधर्म भवविरहका मार्ग दिखलाता है।" ___उनको अपनी प्रतिज्ञाका स्मरण हो आया. वे उत्कंठासे चिल्ला ऊठेः " भगवन् । मुझे 'भवविरह' चाहिए।" आचार्य महाराजने कहाः “वस ! श्रमणत्वके विना ' भवविरह ' पाम नहीं हो सकता इसलिये प्रथम श्रमणमार्ग अंगीकार करना चाहिए।" श्रमणत्वका स्वीकार और अध्ययनः वस, तब क्या था ! हरिभद्रने उसी वख्त जैन मुनि होनेका निश्चय किया और दीक्षाका प्रसंग वडे समारोहके साथ पूर्ण हुआ। जैनेतर विद्वानों-उनके पराजित वादी पंडितगण भी अपने मुंहमें उंगलि डाल कर आश्चर्यमुग्ध हो ऊठे । जैनधर्मके लिये यह प्रसंग कैसा अद्भुत होग जिसका अनुमान पाठकको सहजमे ही हो सकता है। उनके जीवनके यह क्रांतिपूर्ण अध्यायके मंगल चिहरूप श्रीयाकिनी महतराको उन्होंने अपनी धर्मजननीके स्वरूप स्वीकार किया। उन्होंने अपनी कृतियों में खुदको 'याकिनी महत्तरासूनु' रूप उस अक्षरदेहको चिरस्मरणीय बना कर मानो उनके उपकारका बदला चुकाया है।
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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