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________________ गृहस्थ सामान्य धर्म : ६७ अंतिम कामको बाधा होने पर धर्म व अर्थको हानि नहीं होने देना चाहिये । अर्थ व काम दोनोंमें अंतराय हो तो मी धर्मको हानि न होने दे। क्योंकि यदि धर्म व धन होगा तो इच्छित पदार्थ स्वतः मिलेंगे। यदि धर्म होगा तो ऊपर कहे अनुसार वह धन व कामका दाता है अतः ये चीजें धर्मके कारण 'मिल हो जावेगी । धर्म ही अर्थ व कामका मूल है। कहा भी है कि "धर्मश्चेनावसीदते, कप्रालेनापि जीवितः । आट्योऽस्मीति गन्तव्यं धर्मवित्ता हि साधवः" ||४०|| 1 — कटोरी लेकर भिक्षा मागनेवाला भी धर्म सहित होने पर 'कमी नाशको प्राप्त नहीं होता। 'मैं धनवान हूं' वह ऐसा विचार करे, क्योंकि साधु पुरुषोको तो धर्म ही धन है । दूसरी जगह भी कहा है कि लक्ष्मी उताकी तरह धर्मवान पुरुषोका आश्रय लेती है अत' अर्थ या काम या दोनोंकी हानि हो तो भी धर्मका नाश नहीं होने देना चाहिये । तिम्रा बलाबलापेक्षप्रमिति २८ ॥ ५२ ॥ मूलार्थ - अपनी शक्ति व अशक्तिको सोच कर काम करना चाहिये ||५|| विवेचन-बल- द्रव्य, क्षेत्र, काल व भावका अपना सामर्थ्य न्या शक्ति, अत्रल- उल्टा-असामर्थ्य या अशक्ति, अपेक्षणं-आलोचना या विचार करके |
SR No.010660
Book TitleDharmbindu
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorHirachand Jain
PublisherHindi Jain Sahitya Pracharak Mandal
Publication Year1951
Total Pages505
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari
File Size15 MB
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