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________________ २३ 1 कोमें (नैवं ) नहीं है । सो ठीक ही है । क्यों कि ( यथा ) जिस प्रकारसे (तेजः) प्रकाश ( स्फुरन्मणिषु ) स्फुरायमान मणियों में ( महत्त्वं ) गौरवको ( याति ) प्राप्त होता है, ( एवं तु ) वैसा तो ( किरणाकुले अपि ) किरणोंसे व्याप्त अर्थात् चमकते हुए भी ( काचशकले ) काचके टुकडेमें ( न ) नहीं होता । भावार्थ : – जो प्रकाश मणियोंमें शोभाको पाता है, वह कांचके टुकड़ोंमें नही पा सकता । इसी प्रकारसे जैसा खपरप्रकाशक ज्ञान आपमें है, वैसा अन्य विष्णु महादेव आदि देवों में नही पाया जाता ॥ २० ॥ मन्ये वरं हरिहरादय एव दृष्टा दृष्टेषु येषु हृदयं त्वयि तोषमेति । किं वीक्षितेन भवता भुवि येन नान्यः कश्चिन्मनो हरति नाथ भवान्तरेऽपि ॥ २१ ॥ नरेन्द्रछन्द वा जोगीरासा । हरिहर आदिक देवनको ही, अवलोकन मुहि भावै । जिनहिं निरखकर जिनवर, तुममें, हृदय तोप अति पावै ॥ पै कहा तुम दरसनसों भगवन्, जो इस जग माहीं । परभवमें ह अन्य देव मन, हरिवे समरथ नाहीं ॥ २१ ॥ हू अन्वयार्थी - ( नाथ ) हे नाथ, मै ( हरिहरादयः दृष्टा एव ) हरिहरादिक देवोंका देखना ही ( वरं मन्ये ) अच्छा मानता हूं । ( येषु दृष्टेषु ) जिनके कि देखनेसे ( हृदयं ) हृदय
SR No.010657
Book TitleAdinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages69
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & Literature
File Size3 MB
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