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________________ तुल्या भवन्ति भवतो ननु तेन किं वा भूत्याश्रितं य इह नात्मसमं करोति॥१०॥ हे भुवनभूषनरूप प्रभु, इहिमें न कछु अचरज रहा। जो सत्यगुनगायक तिहारे, होहिं तुव सम नर महा ॥ स्वाश्रित जननको स्वामि जो, अपनी प्रभूत विभूतिसों। नहिं करत आप समान ताकी, कहा वह करतूतिसों॥१०॥ अन्वयार्थी-( भुवनभूषनभूत ) हे जगत्के भूषणरूप भगवन् (भुवि ) संसारमें ( भूतैः गुणैः) सत्य तथा समीचीन गुणोंकरके ( भवन्तम् ) आपको ( अभिष्टुवन्तः) स्तवन करनेवाले पुरुष ( भवतः ) आपके ही (तुल्याः ) समान ( भवन्ति) होते है । सो इसमें (अति अद्भुतं न) अधिक आश्चर्य नही है। (ननु) क्योंकि ( नाथ) हे नाथ, (यः) जो कोई खामी (इह ) इस लोकमें (आश्रितं) अपने आश्रित पुरुषको (भूत्या) विभूतिकरके ( आत्मसमं) अपने समान ( न करोति ) नही करता है, (तेन) उस खामी करके (किं वा) क्या लाभ ? भावार्थ-हे भगवन् , जिसप्रकार उदारखामीका सेवक कालान्तरमें धनादिसे सहायता पा करके अपने स्वामीके समान १ भक्तजन । २ कोई २ " भुवनभूषण " और "भूतनाथ" ऐसे दो सम्बोधन करके "हे भुवनके भूषण " और "हे जीवोके नाथ " अर्थ करते हैं।
SR No.010657
Book TitleAdinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages69
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & Literature
File Size3 MB
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