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________________ ज्यों जगतव्यापी भ्रमरसम तम, नीलतम निशिसमयको। ततकाल ही दिनकरकिरनसों, प्राप्त होवहि विलयको॥७॥ अन्वयार्थी-( आक्रान्तलोकम् ) जिसने लोकको ढक लिया है, और जो ( अलिनीलम् ) भ्रमरके समान काला है, ऐसे (शार्वरम्) रात्रिके ( अशेषम् ) सम्पूर्ण (अन्धकारम् ) अंधकारको (आशु) शीघ्रतासे ( सूर्याशुभिन्नम् ) जैसे सूर्यकी किरणें नष्ट कर देती है, उसी प्रकार हे भगवन् ! (त्वत्संस्तवेन) तुम्हारे स्तवनसे ( शरीरभाजाम् ) जीवधारियोंके ( भवसन्ततिसनिबद्धं) जन्मजरामरणरूप संसारपरम्परासे बँधा हुआ (पाप) पाप (क्षणात् ) क्षणभरमें (क्षयम् ) नाशको (उपैति ) प्राप्त होता है। भावार्थ:-जैसे अंधकारको सूर्य मिटा देता है, उसी प्रकार आपके स्तोत्रसे जीवोंके पाप क्षय हो जाते है ॥ ७ ॥ मत्वेति नाथ तव संस्तवनं मयेद मारभ्यते तनुधियाऽपि तैव प्रभावात् । चेतो हरिष्यति सतां नलिनीदलेषु मुक्ताफलद्युतिमुपैति ननूदबिन्दुः ॥ ८॥ जिनराज अस जिय जानिकै, यह आपकी विरोवली । थोरी समझ मेरी तऊ, प्रारंभ करत उतावली ॥ १ अत्यन्त नीला ( काला) २ कहीं कहीं नीले रंग कालेका उपचार किया जाता है । ३ "तत् प्रसादातु" भी पाठ है । ४ स्तोत्रमाला ।
SR No.010657
Book TitleAdinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages69
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & Literature
File Size3 MB
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