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________________ तीन जगतके चित्त हरण करनेवाले (उदारैः) महान् (स्तोत्रैः) स्तोत्रोंके द्वारा (यः संस्तुतः) जिसकी स्तुति की, (तं) उस (प्रथमं जिनेन्द्र) प्रथम तीर्थकर श्रीऋषभदेवका (किल )आश्चर्य है कि ( अहम् अपि) मै भी (स्तोष्ये) स्तवन करता हूं। भावार्थ:-जिसकी स्तुति द्वादशांग वाणीके ज्ञाता इन्द्रोंने बड़े २ विशाल स्तोत्रोंके द्वारा की है, उसी आदिनाथ भगवान्का मैं स्तोत्र करना प्रारंभ करता हूं, यह बड़ा आश्चर्य है । बुद्ध्या विनापि विबुधार्चितपादपीठे __ स्तोतुं समुद्यतमतिर्विगतत्रपोऽहम् । वालं विहाय जलसंस्थितमिन्दुबिम्ब मन्यः क इच्छतिजनःसहसा ग्रहीतुम्॥३॥ हे अमरपूजितपद तिहारी, थुति करनके काज मैं। बुधिविना ही अति ढीट है कै, भयउ उद्यत आज मैं ॥ जलमें पस्यौ प्रतिबिम्ब शशिको, देख सहसा चावसों। तजिकै शिशुनकों को सुजन जन,गहन चाहै भावसों॥३॥ अन्वयार्थों-(विवुधार्चितपादपीठ) देवोंने जिसके सिंहासनकी पूजा की है, ऐसे हे जिनेन्द्र ! (बुद्ध्या विना ) बुद्धिके १ "किल' शब्दका यह अभिप्राय श्रीप्रभाचन्द्राचार्यकी संस्कृतटीकासे ग्रहण किया गया है। २ "विबुधार्चितपादपीठम्" ऐसा भी पाठ है । ३ स्तुति । ४ बालकोंको । ५ वस्तुपनेसे।
SR No.010657
Book TitleAdinath Stotra arthat Bhaktamar Stotra
Original Sutra AuthorN/A
AuthorNathuram Premi
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1912
Total Pages69
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Worship, & Literature
File Size3 MB
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