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________________ - - की थोडामा जैनधर्म बाकी न रह जाय । परन्तु यह उनकी बडी। मारी गलती है और माज इसी गलतीको दूर करने के लिये यहलेख लिखा जाता है। मारे जैनी भाई इस घातको जानते हैं और शास्त्रोंमे मी जगह जगहपर हमारे परमपुज्य प्राचार्योंका यही उपदेश है कि, संसारमें । दो प्रकारकी वस्तुएँ हैं। एक चेतन और दूसरी अचेतन । चेतनको जीव और अचेतनका मजीव कहते है । जितने जीव है, वे सब द्रव्य त्त्वकी अपेक्षा वा द्रव्यदृष्टि से बराबर हैं, किसी मे कुछ भेद नही है, सबका असली स्वभाव और गुण एक ही है। परन्तु अनादि कालसे जीवोको कर्मका मैल (मल) लगा हुआ है, जिसक कारण उनका असली स्वभाव आच्छादित हा रहा है, और ये जीव नाना प्रकारकी पर्यायें धारण करते हुए दृष्टिगोचर होरहे हैं । कीडा, मकोडा, कुत्ता, बिल्ली, शेर, बघेरा, हाथी, घोडा, ऊंट, गाय, बैल, मनुष्य, पशु, देव, और नारकी भादिक समस्त अवस्थाएँ इसी कर्ममलके परिणाम है और जीवकी इस अवस्थाको विमावपरिणति कहते हैं। जबतक जीवों में यह विभावपरिणति बनी रहती है, तब ही तक, उनको संसारी कहते हैं और तभी तक उनको संसारमै नानाप्रकार के रूप धारण करक परिभ्रमण करना पड़ता है। परन्तु जब किसी जीवकी यह विभावपरिणति मिट जाती है, और उसका निज-. स्वभाव सर्वाङ्ग ओर पूर्णतया प्रकट होजाता है तब वह जीव मुक्ति को प्राप्त हो जाता है, और इस प्रकार जीवके संसारी और मुक्त ऐसे दो भेद कहे जाते हैं। ऊपरके कथनानुसार जीवोंकाजो असलीस्वमाव है, वही उनका
SR No.010656
Book TitleAnitya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1914
Total Pages155
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size5 MB
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