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________________ ४८ विवाह संबध होनेसे कोई जातिच्युत नहीं किया जाता । हमारी भारतवर्षीय दिगम्बरजैनमहासभाके सभापति, जैनकुलभूषण श्रीमान सेठ माणिकचंदजी जे पी बम्बईके भाई पानाचंदजीका विवाह भी एक दस्सकी कन्यासे हुआ था, परन्तु इससे उनपर कोई कलक नहीं आया और कलक आनेकी कोई बात भी न थी। प्राचीन और समीचीन प्रवृत्ति भी, शास्त्रोमे, ऐसी ही देखी जाती है जिससे ऐसे विवाह सम्बन्धोपर कोई दोषारोपण नहीं हो सकता । अधिक दूर जानेकी जरूरत नहीं है । श्रीनेमिनाथ तीर्थकरके चचा वसुदेवजीको ही लीजिये । उन्होने एक व्यभिचारजातकी पुत्रीसे, जिसका नाम प्रियगुसुंदरी था, विवाह किया था। प्रियंगुसुंदरीके पिताका अर्थात उस व्यभिचारजातका नाम एणीपुत्र था । वह एक तापसीकी कन्या ऋषिदत्तास, जिससे श्रावस्ती नगरीके राजा शीलायुधने व्यभिचार किया था और उस व्यभिचारसे उक्त कन्याको गर्भ रह गया था, उत्पन्न हुआ था। यह कथा श्रीजिनसेनाचार्यकृत हरिवशपुराणमे लिखी है। इस विवाह से वसुदेवजीपर, जो बड़े भारी जैनधर्मी थे कोई कलक नहीं आया। न कहींपर वे पूजनाधिकारसे वचित रक्खे गये । बल्कि उन्होंने श्रीनेमिनाथजीके समवसरणमे जाकर साक्षात् श्रीजिनेद्रदेवका पूजन किया है और उनकी उक्त प्रियंगुसुंदरी राणीने जिनदीक्षा धारण की है। इससे प्रगट है कि व्यभिचारजातंही. का नाम दस्सा नहीं है और न कोई व्यभिचारजात ( अपध्वमज) पूजनाऽधिकारसे वचित है। "शूद्राणां तु सधर्माण. सर्वेऽपध्वसजा. स्मृता." अर्थात् समम्त अपध्वसज (व्यभिचारसे उत्पन्न हुए मनुष्य) शूद्रोके समानधर्मी हैं, यह वाक्य यद्यपि मनुस्मृतिका है, परन्तु यदि इस वाक्यको सत्य भी मान लिया जाय और जप दसजोहीको दस्से समझ लिया जाय, तो भी वं पूजनाधिकारसे वचित नहीं हो सकते । क्योकि शूद्रोंको साफ तौरसे पूजनका अधिकार दिया गया है, जिसका कथन ऊपर विस्तारके साथ आचुका है । जब शूद्रोंको पूजनका अधिकार प्राप्त है, तब उनक समानधर्मियोको उस अधिकारका प्राप्त होना स्वत सिद्ध है। १ व्यभिचारजात भी दस्सा होता है ऐसा कह सकते है । ---
SR No.010656
Book TitleAnitya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1914
Total Pages155
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size5 MB
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