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________________ ४१ संस्कृत (जनेऊधारक) बिरले ही जैनी देखनेमे आते है । और उनमें भी बहुतसे ऐसे पाये जाते हैं जिन्होंने नाममात्र कन्धेपर सूत्र ( तागा ) डाल लिया है, वैसे यज्ञोपवीतसबधी क्रियाकर्मसे वे कोसो दूर हैं । दक्षिण देशको छोड़कर अन्य देशोमे तथा खासकर पश्चिमोत्तर प्रदेश अर्थात् युक्तप्रात और पंजाबदेशमें तो यज्ञोपवीतसस्कारकी प्रथा ही, एक प्रकारसे, जैनियोसे उठ गई है परन्तु नित्यपूजन सर्वत्र बराबर होता है । इससे भी प्रगट है कि नित्यपूजनके लिये जनेऊका होना आवश्यक कर्म नहीं है और इस लिये जनेऊका न होना शूद्रोको नित्यपूजन करनेमें किसी प्रकार भी बाधक नहीं हो सकता । उनको नित्यपूजनका पूरा पूरा अधिकार प्राप्त है। यह दूसरी बात है कि कोई अस्पृश्य शूद्र. अपनी अस्पृश्यताके कारण, किसी मदिरमे प्रवेश न कर सके और मूर्तिको न छू सके, परन्तु इससे उसका पूजनाधिकार ग्वडित नहीं होजाता । वह अपने घरपर त्रिकाल देववन्दना कर सकता है जो नित्यपूजनमें दाखिल है । तथा तीर्थस्थानों, अतिशय क्षेत्रो और अन्य ऐसे पर्वतोपर-जहा खुले मैदानमे जिनप्रतिमाएं विराजमान है और जहा भील, चाण्डाल और म्लेच्छतक भी विना रोकटोक जाते है-जाकर दर्शन और पूजन कर सकता है । इसी कार वह बाहरसे ही मदिरके शिवरादिकमे स्थित प्रतिमाओका दर्शन और पूजन कर सकता है। प्राचीन समयमं प्राय जो जिनमन्दिर बनवाये जाते थे, उनके शिखर या द्वार आदिक अन्य किसी ऐसे उच्च स्थानपर, जहा सर्व साधारणको दृष्टि पट सके, कमसेकम एक जिनप्रनिमा जरूर विराजमान की जाती थी, ताकि ( जिससे ) वे जानियां भी जो अस्पृश्य होनेके कारण, मदिरमे प्रवेश नहीं कर सकती, बाहरसे ही दर्शनादिक कर सके। यद्यपि आजकल ऐसे मदिरोके बनवानेकी वह प्रशमनीय प्रथा जाती रही है-जिसका प्रधान कारण जैनियोका क्रमसे हास और इनमे में राजसत्ताका सर्वथा लोप हो जाना ही कहा जा सकता है-तथापि दक्षिण देशमै, जहांपर अन्तम जैनियोका बहुत कुछ चमत्कार रह चुका है और जहासे जैनियोंका राज्य उठेहुए बहुत अधिक समय भी नहीं हुआ है, इस समय भी ऐसे जिनमदिर विद्यमान है जिनके शिखरादिकमे जिनप्रतिमाएँ अकित है।
SR No.010656
Book TitleAnitya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1914
Total Pages155
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size5 MB
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