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________________ किया है । इसीप्रकार सागारधर्मामृत, धर्मसंग्रहश्रावकाचार और पूजासार वगैरह प्रथोमे भी इसका कुछ कुछ विशेष वर्णन पाया जाता है, परन्तु पूरा कथन किसी भी एक प्रथमे नहीं मिलता । कोई बात किसीमे अधिक है और कोई किसीमे । इसीप्रकार ग्यारह प्रतिमाओके कथनको लीजिये-बहुतसे ग्रथोमे इनका कुछ भी वर्णन नहीं किया, केवल नाम मात्र कथन कर दिया वा प्रतिमाका भेद न कहकर मामान्य रूपसे श्रावकके १२ व्रतोका वर्णन कर दिया है । रत्नकरडश्रावकाचारमे इनका बहुत सामान्यरूपसे कथन किया गया है । वसुनन्दिश्रावकाचारम उससे कुछ अधिक वर्णन किया गया है। परन्तु सागारधर्मामृतमे, अपेक्षाकृत, प्राय अच्छा खुलासा मिलता है। ऐसी ही अवस्था अन्य और भी विषयोकी समझ लेनी चाहिए । अब यहापर यह प्रश्न उठ सकता है कि, ग्रंथकार जिस विषयको गौण करके उसका सामान्य कथन करता है वह उसका उत्कृष्टकी अपेक्षासे क्यो कथन करता है, जघन्यकी अपेक्षासे क्यो नहीं करता? इसका उत्तर यह है कि, प्रथमतो उत्कृष्ट आचरणकी प्रधानता है । जबतक उत्कृष्ट दर्जेके आचरणमे अनुराग नहीं होता तबतक नीचे दर्जेके आचरणको आचरण ही नही कहते, + इससे उसके लिये साधन अवश्य चाहिये। दूसरे ऊचे दर्जेके आचरणमे किचित् भी स्वलित होनेसे स्वत. ही नीचे दर्जेका आचरण हो जाता है । समारीजीवोकी प्रवृत्ति और उनके सस्कार ही प्राय उनको नीचेकी और ले जाते है, उसके लिये नियमित रूपसे किसी विशेष उपदंशकी जरूरत नहीं। तीसरे ऊचे दर्जेको + सागारधर्मामृतके प्रथम लोककी टोकामे लिखा है, "यतिधर्मा. नुरागरहितानामागारिणां देशविरतेरप्यसम्यक्रूपत्वात् । सर्व विरतिलालसः खल देशविरतिपरिणामः।" अर्थात् यतिवर्ममे अनुराग रहित गृहस्थियांका 'देशव्रत' भी मिथ्या है । सकलविरतिमे जिसकी लालसा है वही देशविरतिके परिणामका चारक हो सकता है। इससे भी यही नतीजा निकलता है कि, जघन्य चारित्रका धारक भी कोई तब ही कहलाया जा सकता है जब वह ऊचे दर्जेके आचरणका अनुरागी हो और शक्ति आदिकी न्यूनतासे उसको वारण न कर सकता हो।
SR No.010656
Book TitleAnitya Bhavna
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJain Granth Ratnakar Karyalay
Publication Year1914
Total Pages155
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari, Spiritual, & Religion
File Size5 MB
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