SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 134
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ १३१ सू. ८-४-२४७] स्वोपज्ञवृत्तिसहितम् न वा कर्म-भावे व्वः क्यस्य च लुक् ॥ ८ । ४ । २४२ ॥ च्यादीनां कर्मणि भावे च वर्तमानानामन्ते द्विरुक्तो वकारागमो वा भवति तत्सन्नियोगे च क्यस्य लुक् ॥ चिच्वइ चिणिज्जइ । जिव्वइ जिणिज्जइ । सुव्वइ सुणिज्जइ । हुव्वइ हुणिज्जइ । थुव्वइ थुणिज्जइ । लुम्वइ लुणिज्जइ । पुटवइ पुणिज्जइ । धुव्वइ धुणिज्जइ ॥ एवं भविप्यति । चव्वि - हिइ । इत्यादि ॥ २४२ ॥ म्मश्चः॥ ८।४।२४३॥ चिगः कर्मणि भावे च अन्ते संयुक्तो मो वा भवति तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् ॥ चिम्मइ । चिव्वइ । चिण्णिज्जइ ॥ भविष्यति । चिम्मिहिइ । चिव्विहिइ । चिणिहिइ ॥ २४३ ॥ हन्खनोन्तयस्य ॥ ८।४।२४४ ॥ अनयोः कर्मभावेन्त्यस्य द्विरुक्तो मो वा भवति तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् ॥ हम्मइ हणिज्जइ । खम्मइ खणिज्जइ ॥ भविष्यति । हम्मिहिइ हणिहिइ । खम्मिहिइ खणिहिइ ॥ बहुलाधिकाराद्धन्तेः कर्तर्यपि ॥ हम्मइ । हन्तीत्यर्थः ॥ क्वचिन्न भवति ॥ हन्तव्वं । हन्तूण । हओ ॥ २४४ ॥ ब्भो दुह-लिह-वह-रुधामुच्चातः ॥ ८।४ । २४५॥ दुहादीनामन्त्यस्य कर्मभावे द्विरुक्तो भो वा भवति तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुग् वहेरकारस्य च उकारः ॥ दुब्भइ दुहिज्जइ । लिब्भइ। लिहिज्जइ । वुब्भइ वहिज्जइ । रुब्भइ रुन्धिज्जइ । भविष्यति । दुब्मिहिइ दुहिहिइ इत्यादि ॥ २४५॥ दहो ज्झः ॥ ८।४ । २४६ ॥ दहोन्तयस्य कर्मभावे द्विरुक्तो झो वा भवति तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् ॥ डज्झइ । डहिज्झइ । भविष्यति । डज्झिहिइ । डहिहिइ ॥२४६॥ बन्धो न्धः॥८।४ । २४७॥ बन्धेर्धातोरन्त्यस्य न्ध इत्यवयवस्य कर्मभावे ज्झो वा भवति तत्सन्नियोगे क्यस्य च लुक् ॥ बज्झइ । बन्धिज्जइ ॥ भविष्यति । बज्झिहिइ । बन्धिहिइ ॥ २४७ ॥
SR No.010651
Book TitlePrakrit Vyakaranam
Original Sutra AuthorHemchandracharya
AuthorParshuram Sharma
PublisherMotilal Laghaji
Publication Year
Total Pages343
LanguageSanskrit, Hindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size24 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy