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________________ [156] परम्परा हो। सत्कविपरम्परा से जितना अन्यथा वर्णन निर्दोष माना गया हो केवल उतने ही अन्यथा वर्णन का औचित्य है। इस प्रकार आचार्य रूद्रट की मान्यता है कि अर्थ का भिन्न रूप में निबन्धन भिन्न रूप में निबन्धन की कविप्रसिद्धि होने पर दोष नहीं है। नवम शताब्दी के आचार्य आनन्दवर्धन अनौचित्य को सभी प्रकार के रस दोषों का कारण मानते हैं2 तथा प्रसिद्धौचित्यबन्ध को रस का परम रहस्य। प्रसिद्धौचित्य से आचार्य का तात्पर्य क्या है? सामान्य रूप से प्रसिद्धौचित्य के अन्तर्गत तीन प्रकार के औचित्य स्वीकार किए जा सकते हैं लोक में प्रसिद्ध औचित्य, शास्त्र में प्रसिद्ध औचित्य तथा काव्यजगत् में प्रसिद्ध औचित्य । यदि आनन्दवर्धन का तात्पर्य इन तीनों ही औचित्यों में माने तो यह भी माना जा सकता है कि उन्होंने प्रसिद्धौचित्य के महत्व को स्वीकार करके अप्रत्यक्ष रूप से कविप्रसिद्धि के महत्व को भी स्वीकार किया है। इस विषय में यह भी शंका हो सकती है कि सम्भव है आनन्दर्धन प्रसिद्धौचित्य कहकर प्रसिद्धि के अन्तर्गत केवल शास्त्रीय तथा लौकिक प्रसिद्धि को स्वीकार करते रहे हों, कविप्रसिद्धि से उनका तात्पर्य न रहा हो, किन्तु इस शंका का समाधान है। आचार्य रूद्रट आचार्य आनन्दवर्धन से पूर्व कविप्रसिद्धि के महत्व को स्वीकार कर चुके थे तथा आनन्दवर्धन के सम्मुख कविसमय के निबन्धन की परम्परा विद्यमान थी। अत: उनके प्रसिद्धौचित्य के अन्तर्गत कविजगत् के भी प्रसिद्धौचित्य को समाविष्ट किया जा सकता है। कविसमय का उल्लेख न करके भी कवियों के मार्ग में प्रसिद्ध विषयवस्तु का आचार्य आनन्दवर्धन ने काव्योपनिबन्धन में विशेष महत्व स्वीकार किया है। अचेतन वस्तुओं का चेतन स्वरूप में वर्णन करना सत्कवियों का प्रसिद्ध मार्ग है तथा चेतन प्राणियों का बाल्यादि अवस्था भेद से जो अन्यत्व होता है वह भी सत्कवियों में प्रसिद्ध है। कवियों में प्रसिद्ध विषय की महत्ता स्वीकार करने के कारण आचार्य आनन्दवर्धन कवियों में प्रसिद्ध विशिष्ट कविसमय रूप सिद्धान्तों का उल्लेख न करते हुए भी काव्य जगत् में इन कविसमयों के महत्व को स्वीकार करते रहे होंगे ऐसा प्रतीत होता है। प्रसिद्धौचित्य का निबन्धन काव्यात्मा रस का परम रहस्य है। उनके इसी कथन में अन्य प्रसिद्धियों के साथ कविजगत् में 1. सुकविपरम्परया चिरमविगीततयान्यथा निबद्धं यत् वस्तु तदन्यादृशमपि बध्नीयात्तत्प्रसिद्धयैव। (7/8) काव्यालङ्कार (रुद्रट) 2. अनौचित्यादृते नान्यद् रसभङ्गस्य कारणम् प्रसिद्धौचित्यबन्धस्तु रसस्योपनिषत्परा॥ ध्वन्यालोक (तृतीय उद्योत)
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
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