SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 115
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [108] लाभकारी है तथा कवित्व की अपरिपक्वावस्था में नवीन अर्थ का उद्भव करने की क्षमता न होने पर विभिन्न प्राचीन कथाओं को लेकर ही अर्थनिबन्धन का प्रयास भी क्रमश:काव्य निर्माण की विकसित अवस्था को प्राप्त करने के लिए उपादेय है। आचार्य वाग्भट प्राचीन वेदों आदि की कथाओं को लेकर अर्थवन्ध को अभ्यास का उपाय स्वीकार करके भी प्राचीन कवियों के काव्यों के अर्थग्रहण को लेकर अभ्यास करने को श्रेयस्कर नहीं मानते । यद्यपि समस्यापूर्ति रुप काव्य के अभ्यास में दूसरों के अर्थग्रहण का दोषत्व नहीं है, क्योंकि समस्यापूर्ति में कवि दूसरे के अर्थ का अल्पांश ही ग्रहण करता है, संपूर्ण काव्य नहीं। आचार्य क्षेमेन्द्र के ग्रन्थ (कविकण्ठाभरण) में प्रारम्भिक अवस्था के कवि के लिए विवेचित सौ शिक्षाएँ कवि के बौद्धिक विकास एवं उसके काव्यनिर्माण के अभ्यास सम्बद्ध हैं। अभ्यास के अनेक उपाय भी इस ग्रन्थ में प्रदर्शित हैं-2 यह अभ्यास कवि के काव्य में भाषा, भाव तथा कला सम्बन्धी सौष्ठव के उत्पादन हेतु उपादेय हैं। दूसरे के अभिप्राय को प्रकारान्तर से अपनी भाषा में व्यक्त करना, प्रसाद गुण युक्त शब्दों का प्रयोग, छन्दविधान का अभ्यास, भाषा में चमत्कार तथा प्रवाह लाने का प्रयास 1. परार्थवन्धाद्यश्च स्यादभ्यासो वाच्यसङ्गतौ स न श्रेयान्यतोऽनेन कविर्भवति तस्करः । 121 परकाव्यग्रहोऽपि स्यात्समस्यायां गुणः कवेः अर्थं तदर्थानुगतं नवं हि रचत्यसौ । 13 । वाग्भटालङ्कार (वाग्भट) (प्रथम परिच्छेद) 2 अल्पप्रयत्नसाध्य शिष्य का अभ्यास कुर्वीत साहित्यविदः सकाशे श्रुतार्जनं काव्यसमुद्भवाय न तार्किकं केवलशाब्दिकं वा कुर्याद् गुरूं सूक्तिविकासविघ्नम्। विज्ञातशब्दागमनामधातुश्छन्दो विधाने विहितश्रमश्च काव्येषु माधुर्यमनोरमेषु कुर्यादखिन्न: श्रवणाभियोगम् ।। गीतेषु गाथास्वथ देशभाषाकाव्येषु दद्यात् सरसेषु कर्णम् वाचां चमत्कारविधायिनीनाम् नवार्थचर्चासु रुचिं विदध्यात्।। कृच्छ्रसाध्य शिष्य का अभ्यास पठेत् समस्तान् किल कालिदासकृत प्रबन्धतिहासदर्शी कस्याधिवासप्रथमोदगमस्य रक्षेत् पुरस्तार्किकगन्धमुग्रम्॥ महाकवेः काव्यनवक्रियायै तदेकचित्तः परिचारकः स्यात् पदे च पादे च पदावशेषसंपूरणेच्छां मुहुराददीत॥ अभ्यासहेतोः पदसंनिवेशैर्वाक्यार्थशून्यैर्विदधीत वृत्तम् श्लोकं परावृत्तिपदैः पुराणं यथास्थितार्थ परिपूरयेत् च।। कविकण्ठाभरण (क्षेमेन्द्र) प्रथम सन्धि
SR No.010645
Book TitleAcharya Rajshekhar krut Kavyamimansa ka Aalochanatmaka Adhyayan
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKiran Srivastav
PublisherIlahabad University
Publication Year1998
Total Pages339
LanguageHindi, Sanskrit
ClassificationBook_Devnagari & Literature
File Size28 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy