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________________ ८६ / मुक्ति का अमर राही: जम्बूकुमार यह है कि ये तो सुख है ही नहीं । सूख की छाया मात्र है, भुलावे हैं । फिर इनका उस वास्तविक सुख के साथ तारतम्य विठाना अनुपयुक्त है। ये तथाकथित सुख तो केवल दुखो की भूमिकाएँ है, दुःखो के जनक है। तीक्ष्ण तलवार की धार पर लगे मधु __ को चाटने के समान है। मधु की मिठास का आनन्द तो जवान को क्षणमात्र के लिए भी नही आयगा और धार से कटकर जबान लहुलुहान हो जायगी। इन सुखो का अस्तित्व तो मान इतना ही है । इन सुखो के अधीन रहकर आत्मकल्याण तथा असमाप्य सुख की प्राप्ति मे वाधा रहती है, इस प्रकार इन तुच्छ सुखो के परित्याग मे ही मानव का शुभ निहित है-ऐसा निस्सन्देह स्वीकार कर लेना चाहिए। तुम्हे जो सुखरूप मे दिखाई दे रहे हैं--पद्मश्री, वे कभी किसी का स्थायी हित नही कर सकते, आनन्द नही दे सकते । इनके कपटाचार से मनुष्य जितना शीघ्र मुक्त होगा, उतना ही उसका हित होगा। मैं अपनी धारणा को भी अगारकारक के इस दृष्टान्त से प्रतिपादित करता हूँ, सुनो एक अगारकारक था, जो नित्य ही वन मे जाकर सूखी लकडियां बटोर कर उनके कोयले बनाता था। इन कोयलो के विक्रय से ही उसके परिवार की आजीविका चला करती थी। प्रचण्ड ग्रीष्म का समय था । तपती दोपहरी मे वह साय-साय करते वन मे लकडियाँ जुटा रहा था। भीषण आतप से वह कष्ट का अनुभव कर रहा था, किन्तु विश्राम के लिए उसके आप अवकाश कहाँ था । विश्राम करने लगे, तो अपना और पत्नीबच्चो का पेट कैसे भरे। निदान वह परिश्रम करता रहा । वन 1A
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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