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________________ लोभी वानर की कथा | ८३ सराहना की। रानी ने भी पहचान लिया कि यह वही वानर है जो मेरा साथी था। उसने अपनी दासियो को भेजकर वानर को अपने कक्ष मे बुलाया । रानी के नेत्रो से अश्रु प्रवाहित होने लगे । वह वानर की दीन दशा पर बड़ी दुखी थी। उसने वानर से कहा कि तुम अपनी वर्तमान स्थिति से बड़े खिन्न प्रतीत होते हो। यह तुम्हारी भूल है । जब तुम्हे नर-देह प्राप्त हुई थी तब भी अपनी स्थिति से भी तुम असन्तुष्ट रहे थे और उस असन्तोष के दुष्परिणाम से भी तुम परिचित ही हो। अब व्यतीत वृत्तान्त का स्मरण करना व्यर्थ है। तुम्हारे लिए वर्तमान ही सब कुछ है, उसका उपभोग करना ही सच्चा आनन्द है । द्रह मे दुबारा कूदने के उस प्रसग को विस्मृत कर देना ही उत्तम है । अब तो पूर्ण कौशल के, साथ अपनी कला का प्रदर्शन करना, मदारी को प्रसन्न रखनायही तुम्हारा कर्तव्य है। इसी कर्तव्य का निर्वाह करते-करते एक दिन तुम्हें आनन्द का अनुभव भी होने लगेगा। अतीत की भूलों पर पछताना और भावी काल्पनिक सुखो की ओर लपकना-ये दोनो ही विद्यमान सुख को भी नष्ट कर देते हैं । वानर यह सब सुनता रहा और फिर चुपचाप उठकर मदारी के पास चला गया। उक्त कथा को समाप्त कर पद्मश्री पुन अपने पति की ओर उन्मुख हुई और बोली कि हे प्राणप्रिय ! कदाचित् इस दृष्टान्त से आपको कुछ प्रकाश प्राप्त हुआ होगा । मुझे भय है कि कहीं अलौकिक, दिव्य और भावी सुखो के फेर मे पडकर आप उस वानर की भाँति अपने वर्तमान सुखो से भी हाथ न धो बैठे।
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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