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________________ लोभी वानर की कथा | ८१ देव बनना तो कदाचित् मेरे भाग्य मे नही था, किन्तु मानव तो मैं बन ही सकता हूँ-मैं उसी स्थिति मे चला जाता हूँ और जो कुछ उपलब्ध होगा, उसी मे सन्तोष कर लूंगा। वानरी वेचारी सही कहती थी, किन्तु मैंने उसकी सुनी ही नहीं । उसी का दुष्परिणाम भोगना पड़ा है । यह सोचते-सोचते वह पेड़ पर चढ गया और उसने जल मे छलाग लगायी। वानर का दुर्भाग्य तो अटल हो गया था। उसे नहीं बदलना था-सो नही ही बदला । वानर ने कई बार छलागे लगायी, किन्तु वह वानर का वानर ही बना रहा । नर-देह भी उसे प्राप्त नहीं हो सकी । वह उसी अवस्था मे आत्म-ग्लानि से भर उठा और अपना सिर पीटने लगा । वानरी बेचारी भी कष्टित थी, किन्तु कुछ भी तो सहायता नही कर सकती थी वह । ' ' उस दिन उस राज्य का नृपति इसी वन मे आखेट के लिए आया हुआ था। विचरण करते-करते वह इस ग्रह के तट पर पहुंचा । भू-पति ने ज्योही इस सुन्दरी को वहाँ देखा-अचम्भित रह गया । ऐसा लोकोत्तर रूप तो उसने कभी देखा ही नहीं था। उसके नेत्र विस्फारित रह गये । मुग्ध नरेश ने मन-ही-मन एक विचार किया और सुन्दरी को सम्मानपूर्वक राजभवन मे ले आया। यहाँ उसने विधिवत् इस सुन्दरी के साथ विवाह किया और इसे पटरानी के पद पर प्रतिष्ठित कर दिया। सन्तोषी सुन्दरी (नारी-देह मे वानरी) के सुखों मे स्वतः ही वृद्धि हो गयी थी। अपार वैभव, उच्चाधिकार, श्रेष्ठ सुख-सुविधाएं, गौरव, प्रतिष्ठा
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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