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________________ ७८ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार रहे थे, उछल-कूद कर रहे थे कि सहसा वानर के हाथ से डाल छूट गयी और धम्म से वह द्रह मे गिर पडा । यह देखकर वानरी के तो प्राण ही सूखने लगे। वह क्रन्दन करने लगी। उसके करुण स्वर से सारे वन मे ही दैन्य छाने लगा। उसकी दृष्टि जल मे उस स्थान पर लगी हुई थी जहाँ वानर डूबा था। उसे आरम्भिक क्षणो मे तो यह आशा थी कि कदाचित् वानर जीवित निकल आये, पर ज्योज्यो समय व्यतीत होता गया उसकी यह आशा धूमिल होने लगी और क्रन्दन-स्वर उच्च से उच्चतर होने लगा। सहसा उसके विलाप पर एक विराम लगा। उसने देखा कि पानी मे उसी स्थान पर बुलबुले उठने लगे हैं । फिर तो वहाँ से वृत्ताकार लहरें उठने लगी और कुछ ही क्षणो मे एक अत्यन्त सुन्दर युवक जल से निकल आया। उसने एक दृष्टि ऊपर वृक्ष पर डाली और वानरी की ओर स्नेह से ताकने लगा। तुरन्त ही एक विवशता उसके नेत्रो मे तैरने लगी। वानरी को यह समझने मे विलम्ब नही हुआ कि इस ग्रह के चमत्कार से ही वानर को नरदेह प्राप्त हो गयी है, किन्तु अब हमारा साहचर्य कैसे सम्भव होगा । उसने सोचा कि मैं भी जल मे छलाग लगा लेती हूँ। जल के प्रभाव से निश्चित ही मैं भी सुन्दर नारी हो जाऊँगी और हमारा पुन. साथ हो जायगा । आगामी क्षण ही उसके मन में यह आशका भी कौंध गयी कि वानर के पूर्वजन्मो के सुकर्मों के कारण ही तो कही उसे यह सुपरिणाम नही मिला है । यदि ऐसा हुआ तो कौन जाने मेरे कर्म कैसे रहे है और मुझे यह गति प्राप्त हो सकेगी या नही | उसका मन पुनः दृढ़ हो गया
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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