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________________ तस्कर प्रभव का हृदय-परिवर्तन | ७१ हो गया है। धन, सम्पदा, वैभव, विलास मेरे लिए सब कुछ असार और तुच्छ है । फिर मेरे लिए तुम्हारी इन विनाशकारी विद्याओ का क्या अर्थ हो सकता है। पंच परमेष्टि मन्त्र को ही मै सर्वोच्च विद्या, सर्वोच्च मन्त्र मानता हूँ। वही मेरे लिए सर्वस्व है। मुझे तो आत्मविद्या के अतिरिक्त किसी भी विद्या की आवश्यकता ही नहीं है। ___ श्रेष्ठि-पुत्र जम्बूकुमार के इस सक्षिप्त किन्तु सारगर्भित उत्तर से तो प्रभव के मन पर अतिशय प्रभाव हुआ । कुछ पलो तक तो वह विचारो मे ही खोया रह गया । जम्बूकुमार के विषय मे वह सोचने लगा कि अतुलित वैभव, प्रचुर सम्पत्ति, अनन्त सुख सुविधाओ को तुच्छ मानकर यह श्रेष्ठि-पुत्र इन सबके उपभोग को ठुकरा कर साधु बनने को तत्पर है और एक में हैं कि धन के लिए कुकर्म करता हूँ। दूसरों के अधिकार का धन अपराध और अनीतिपूर्वक हडपने मे ही मैं रुचिशील रहा हूँ। धन के लोभ ने मुझे अन्धा बना दिया है । मैं करणीय अफरणीय कर्मों के भेद को ही भूल गया हूं। मेरे पातको का तो कोई पार ही नही है । धन्य है जम्बूकुमार और सौ-सौ बार धिक्कार है मुझे। उसका मन आत्मग्लानि से भर उठा । उसके मन मे अब सुपथ और कुपथ का भेद स्पष्ट होने लगा और एक अन्तःप्रेरणा भी जागरित होने लगी कि अब मुझे दुर्जनता का त्याग कर सुपथगामी हो जाना चाहिए। आत्म-कल्याण के मार्ग पर चलकर ही मनुष्य अपने जीवन को सार्थक बना सकता है ।
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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