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________________ ५२ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार और वह भी एक महान लक्ष्य के लिए, तो उसमे किसी के लिए शोक और खिन्नता का कोई कारण नही चाहिए। एक दिन तो विवश होकर बिछुडना ही पडेगा । अत आज ही मैं उस श्रेयस्कर पथ का पथिक क्यो न हो जाऊँ, जिसका लक्ष्य मानव जीवन की चरम सफलता का प्रतीक है । माता चुपचाप जम्बूकुमार की युक्तियुक्त वाते सुनती जा रही थो । जम्बूकुमार के कथन मे असत्य या अनर्गल तत्त्व को न पाकर उसका मन हताश होता जा रहा था । वह पुत्र की किसी भी बात मे तो अनौचित्य नही देख रही थी कि जिसका खण्डन कर वह उसे अपने पक्ष मे करने का प्रयत्न करती तथापि उसने साहस नही छोड़ा | जब लोभ के जाल में वह जम्बूकुमार को ग्रस्त न कर सकी तो अब उसने एक अन्य युक्ति सोची । धारिणीदेवी ने कहा कि वेटें । साधु-जीवन की कठिनाइयों से तुम परिचित नही हो । अत. तुम ऐसा साहस कर रहे है । किन्तु तुम्हारा यह दुस्साहस ही होगा । साधक जीवन कठोर और कष्टपूर्ण होता है । वेटे | वन-वन व गाँव-गाँव भटकना, वृक्षो के तले कठोर चट्टानो पर सोना, कई-कई दिन तक निराहर रहना - साधको के लिए स्वाभाविक परिस्थितियाँ हैं और जम्बू । तुम जैसे वैभव और सुखो के पलने में बड़े होने वाले सुकोमल बालक के लिए यह सब क्या सम्भव होगा ? तुम प्राकृतिक कष्टो को भी तो नही झेल सकते । क्या तुम्हारा यह नवनीत कलेवर मेघो की वाण्वत् धारो को सह.. लेगा ? क्या मोलो की कठिन मार को तुम बरदाश्त कर सकोगे ? प्यारे बेटे ! जब घने जगलो मे प्रचण्ड आंधियां शोर मचाती हुई 1
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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