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________________ ५० | मुक्ति का अमर राही जम्बूकुमार मनुष्य छटपटाता रहता है। दीपक की लौ की ओर लपक कर शलभ की जो स्थिति होती है और बीन की रागिनी से आनन्दित तथा मुग्ध होकर मृगी की जो स्थिति होती है— उससे तो आप परिचित ही है । वैसी ही दारुण स्थिति उन मनुष्यो की होती है जो सुखो के आकर्षक आवरण से लुब्ध होकर उन्हे प्राप्त करने के लोलुप बने रहते है | मछली उन्मुक्त जल-विहार की सानन्द घड़ियो मे जब सरस खाद्य पदार्थ की ओर आकृष्ट होती है और उस रस-सुख का लोभ जब मछली को खाद्य की ओर लपकाता है, तब का परिणाम भी आप जानती ही है । माँ | मछली बेचारी स्वाद के स्थान पर विपाद ही प्राप्त करती है । उस खाद्य के भीतर छिपा लोह-कटक उसके जबड़े मे फँस जाता है और वह कल्पित खाद्य मछली के लिए मृत्यु का कारण बन जाता है । ऐसे असार, अवास्तविक और दुखो के जनक इन सासारिक सुखो की ओर मेरे मन मे कोई आकर्षण नही रहा जो शीघ्र ही नष्ट भी हो जाते है । मैं तो अनन्त असमाप्य सुख का, निर्वाण-सुख का अभिलापी हूँ । मुझे असली सुख के मार्ग से भटकाकर ससार की भूलभुलैया मे क्यों डालना चाहती हैं ? माँ । आप तो अपने पुत्र को सुखी देखना चाहती है - उसका सुख गृहत्याग मे ही निहित है । मुझे इस मार्ग से रोकिये नही, आशीर्वाद प्रदान कीजिए कि उस अनन्त सुख के मार्ग पर तीव्रगति से अग्रसर हो सकूँ । T लेकिन बेटे ! अभी तुम्हारी आयु प्रव्रज्या ग्रहण करने की नही है । माँ ने अपने प्रयत्न को और आगे बढाया और कहा कि अभी तो तुम्हे गृहस्थी बसानी है, पारिवारिक जीवन का आनन्द लेना
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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