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________________ गृहत्याग का निश्चय एवं विवाह-स्वीकृति | ४७ जब राजगृह पधारे, तब तुम दीक्षा प्राप्त कर लेना। उस समय तुम्हे हमारे कारण कोई व्यवधान नहीं रहेगा । कुछ समय हमे और पुत्र सुख का उपभोग कर लेने दो । पिता का आग्रहआत्म-कल्याण का सकल्प | किसे करें और किसकी उपेक्षा करे । जम्बूकुमार के लिए यह कठोर परीक्षा की घडी थी। उनके मन मे अन्तर्द्वन्द्व मच गया। किन्तु वे शीघ्र ही द्वन्द्व पर नियन्त्रण कर निर्णायक परिस्थिति में आ गये । उन्होने बडी ही दृढता के साथ साम्बन्धिक मोह की प्रवृत्ति पर विजय प्राप्त की । उनका पक्ष भारी होता चला गया। उन्होंने विनीत वाणी मे निवेदन किया कि तात | आप मेरे पूज्य है, जनक है-अत आपके आदेशो का उल्लघन मेरे लिए सम्भव नही है तथापि आपसे पुन आग्रह करता है कि मेरी प्रार्थना पर ध्यानपूर्वक विचार कीजिए। यह सत्य ही है कि अल्पायु मे ही मेरे मन मे विरक्ति का भाव अकुरित हो गया है, किन्तु मै आपको विश्वास दिलाता हूँ कि मेरा सकल्प महान लक्ष्य की प्राप्ति के लिए है और मेरे कल्याण मे आपको प्रसन्नता ही होगी । उस महान लक्ष्य के लिए दीर्घ साधना अपेक्षित रहती है। मैं जितना ही शीघ्र इस साधना मे लगंगा उतना ही शुभ है, सफलता उतनी ही अधिक सुरक्षित रहेगी। फिर इस अनिश्चयपूर्ण जीवन का ठिकाना ही क्या है ? जो शभ है, उसे अविलम्ब आरम्भ कर देने मे ही औचित्य है । स्थगन की प्रवत्ति तो उस शुभ के प्रति निष्क्रियता की प्रवृत्ति होगी। जिसे हम आज आरम्भ न करे, क्या भरोसा कि उसे कल आरम्भ करने की स्थिति में हम रहेगे ही। अतः मेरा अनुरोध स्वीकार
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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