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________________ ४२ | मुक्ति का अमर राहो : जम्बूकुमार 'साधु-जीवन' का सकल्प ग्रहण किया जाना हमारे में मा होगा | फिर हे जम्बूकुमार ! तुम पर तो हम दोनों की गिनीकितनी आशाएं अटकी हुई है । तुम इस कुल में एक मात्र पुत्र हो । तुम ही हमारी वश वल्लरी को प्रसारित करोगे। तुम्हारे मुग मे विरक्ति की बात सुनकर हमारी समन्त ध्वस्त होने लगी हैं—तुम इस विचार को त्याग दो और उपलब्ध विराट वैभव का उपभोग करते हुए सानन्द जीवन पापन करो। तुम्हारे अभाव मे इम अतुलित सम्पदा का अर्थ ही क्या रह जायगा । हमे निराश मत करो और प्रव्रजित होने का भाव भी मन मे मत आने दो। अभी तुम्हारी आयु की क्या है? उस अल्पायु मे तुमने ऐसी कौन सी विशिष्ट उपलिब्ध करली है कि तुम प्रब्रजित होने की पात्रता का अनुभव करने लगे । पिता को इस प्रकार अधीर देखकर जम्बुकुमार का हृदय भर आया और कण्ठ अवरुद्ध हो गया । सप्रयास उन्होंने आत्मनियन्त्रण किया और गम्भीरता के साथ निवेदन करने लगे कि तात । कुछ पात्रताएं ऐसी होती हैं जिनका किमी निश्चित कोई सम्बन्ध नही होता । कुछ लोग ऐसे होते है जो ससारसे आयु सागर के कुछ ही थपेडे खाकर सचेत हो जाते है, अपने कर्तव्य के प्रति सजग हो जाते हैं । इसके विपरीत अनेक लोग दीर्घ समय तक, यहाँ तक कि मृत्युपर्यंत भी सचेत नही हो पाते और अपना अमूल्य जीवन व्यर्थ ही खो देते हैं । किन्ही के लिए महान अनुकरणीय आदर्श भी व्यर्थ सिद्ध होते हैं, उन पर उपदेशो का कोई प्रभाव नही होता और किसी की आत्मा रचमात्र संकेत से
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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