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________________ ३८] मुक्ति का अमर राही: जम्बूकुमार पुन आपकी सेवा में उपस्थित हो गया। मार्ग में ही जब मेरा रथ नगर के द्वार से निकल रहा था, अनायास ही द्वार गिर पड़ा। विधि की इच्छानुसार ही में सुरक्षित रह गया, अन्यथा मेरी जीवन-लीला समाप्त होने मे कुछ शेप न रहा था । यदि मैं इस दुर्घटना का आखेट हो ही गया होता, तो मैं अपने सकल्प को कने पूर्ण कर पाता । अव मैं अपने जीवन का एक क्षण भी नहीं खोना चाहता और शेष जीवन को सर्वाश मे साधु-जीवन में परिणत कर लेना चाहता हूं। एक क्षण मौन रहकर जम्बूकुमार पुनः कहने लगे कि प्रभु ! मैं ससार की ओर उन्मुख नहीं होना चाहता । मुझे अपनी शरण मे ले लीजिए । माता-पिता की अनुमति यद्यपि अब तक नहीं मिली है, किन्तु मैं आजीवन ब्रह्मचर्य व्रत ग्रहण करने का अभिलापी हूँ। इसमे अनुमतिहीनता रचमात्र भी वाधक नही होगी। कृपा कीजिए प्रभु । और मुझे तदर्थ मन्त्र प्रदान कीजिए। यह मेरे नवीन मार्ग पर अपना प्रथम चरण होगा । आर्य सुधर्मास्वामी जम्बू कुमार की धर्म के प्रति अडिग आस्था से अति प्रसन्न हुए। उन्होंने जम्बूकुमार को उनके मनोनुकूल ब्रह्मचर्यव्रत का मन्त्र प्रदान किया । इस प्राथमिक सफलता पर जम्बूकुमार को सन्तोष का अनुभव होने लगा। उन्होंने इसे भावी शुभ सकेत माना और आभारयुक्त हृदय से उन्होने आर्यश्री के चरणों मे नमन किया। तत्पश्चात वे अपने भवन को लौट आये ।
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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