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________________ ३२ / मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार से यह भी भली-भाँति स्पष्ट होने लगा था कि वह परम ध्येय क्या है जिसके लिए आत्मा ने मानवदेह धारण की है-जो किसी अन्य योनि मे प्राप्त नहीं किया जा सकता, वह परमलक्ष्य हैमोक्ष । यह आत्मा का अन्तिम गन्तव्य है-यही उसकी यात्रा की स्थायी समाप्ति है। इस मोक्ष को प्राप्त करने के लिए जिन प्रयत्नो की अपेक्षा रहती है, वह मानव जीवन मे ही सम्भव हैअन्य जीवन द्वारा नही। यह मोक्ष ही चिरसुख और अनन्त शान्ति की स्थिति है। इस स्थिति की प्राप्ति के पश्चात् आत्मा बन्धन-मुक्त हो जाती है, आवागमन का चक्र स्थगित हो जाता है। यही असमाप्य सुख है, मोक्ष है । ___इस अनन्त आनन्द के मार्ग को त्यागकर जो अस्थिर और अवास्तविक सुखो के पीछे भागते है, वे कितने अबोध हैं । ये सुख तो अनन्त दु खो के जनक होते हैं। इनकी भूलभुलैया मे पडकर किसी के लिए सही मार्ग पर आना कठिन रहता है । अत इन विषय-वासनाओ को परे रखना ही श्रेयस्कर है । जो इन बन्धनो से मुक्त होकर वीतरागी हो जाता है, उसी के लिए इस श्रेयस्कर मार्ग पर गतिशील होना सम्भव होता है। इस मानवमात्र के कल्याण के मार्ग का अनुसरण कर मनुष्य स्वकल्याण मे ही समर्थ सिद्ध नही होता, अपितु जगत के लिए भी एक मगलकारी कार्य करता है। वह उस मार्ग से अन्यो की भी परिचित कराता है, उस पर गतिवान होने के लिए उन्हे प्रेरणा दे सकता है और उनके द्वारा चिर सुख-शान्ति की प्राप्ति मे सशक्त सहायक हो सकता है। इससे बढकर मानव-जीवन का और क्या सदुपयोग हो सकता
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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