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________________ १६६ / मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार मन से उतना ही अधिक कुरूप था। वासना का कीड़ा ही था वह । सम्पत्ति की अधिकता के कारण जीवन उसका निश्चिन्त था और वह दुराचार मे ही व्यस्त रहता। इसी मे उसे विशेप रसानुभूति हुआ करती थी। वह लम्पट इस सुख के सामने अपने दोप को नगण्य ही मानता रहा । वह धनी था-अतः समाज मे उसकी प्रतिष्ठा थी और कोई उमके दुराचरण की ओर इगित भी नहीं कर पाता था। सन्ध्या को नित्य ही स्निग्ध मूल्यवान वस्त्र धारण कर सुगधित द्रवो से सुवासित होकर, पुष्पहारादि धारण कर वह विचरण के लिए निकल जाता था। उसकी छवि पर अनेक सुन्दरियाँ मुग्ध हो जाती थी और वह भी उन्हे उपकृत ही करता था। एक साय वह इसी प्रकार सज-धज कर राज भवन की ओर निकला । सयोग से उम समय युवती रानी अपने गवाक्ष मे खडी थी । ललित कुमार का ध्यान तो उधर नही गया था, किन्तु रानी ने इस देवोपम सौन्दर्यसम्पन्न युवक को देख लिया। प्रथम झलक मे ही वह उस पर रीझ गयी । उसने अपनी मान-मर्यादा का ध्यान रखना भी अनिवार्य नही समझा और दासी को भेजकर ललितकुमार को राजभवन मे बुलाया। जब रानी का सन्देश ललितकुमार को मिला तो उसका हृदय वामो उछलने लगा। उसे अपने पर गर्व अनुभव होने लगा। वह तुरन्त ही रानी के कक्ष मे पहुंच गया । रानी तो उद्विग्नतापूर्वक उसकी प्रतीक्षा कर ही रही थी। दोनो को परस्पर दर्शन से बडी तृप्ति मिली। वे प्रेमालाप मे ऐसे खो गये कि इसका कोई कुपरिणाम भी हो सकता है-इसकी वे कल्पना
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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