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________________ १६ : ललितकुमार की कथा : जयश्री में वैराग्य-जागरण जयश्री की कथा को जम्बूकुमार ने ध्यान से सुना था और उसके मर्म को पहचानकर उन्होने कहा कि जयश्री! तुम्हे मेरे दुराग्रह के विषय मे बहुत बड़ा भ्रम है कि मैं अपने ही विचार को सत्य मानता हूँ और. ......। मैं तुम्हे स्पष्ट बताना चाहता हूँ कि विरक्त होकर परिव्राजक बन जाने और साधना मार्ग का पथिक बनने का यह निश्चय मैंने किसी आवेश के अधीन नही किया है । मेरे दृष्टिकोण मे एकागिता नही है। मैंने तो अपनी आयु के इस चौराहे पर पहुंच कर यहाँ से जाने वाले सभी मार्गों को भलीभाँति पहचाना है। तुम ससार के जिन भौतिक सुखो मे प्रवृत्त हो जाने को मुझे प्रेरित कर रही हो उनका खूब....खूब गहराई के साथ मैंने अध्ययन किया है । उनकी वास्तविकता से मैं परिचित हो गया हूँ। जयश्री । सुनो, ये सुख ये विषय कभी किसी के लिए हितकर सिद्ध नही हुए। ज्योही कोई एक बार सुखो की ओर आकर्षित होता है-ये उसे अपने दृढ़ बन्धनो मे ऐसा जकड़ लेते हैं कि फिर उसकी मुक्ति की कोई सम्भावना नही रहती । सुख प्राप्ति की कामना तो अनन्त है। उपलब्ध मुख पर मनुष्य सन्तोष करना नही जानता । वह तो अधिकाधिक सुखो का अभिलाषी हो जाता ह-। वह उनकी प्राप्ति के लिए नाना प्रकार के छल-छद्म और
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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