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________________ ८ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार है। ऋषभदत्त का हृदय तो बामो उछलने लगा। धारिणीदेवी का मुखमण्डल ऐसा खिल आया, मानो उस पर चिन्ता और मालिन्य की कोई रेखा कभी रही ही न हो। प्रसन्नता के मारे वे तो अवाक रह गये । जसमित्र से कुछ कहने मे वे असमर्थ से हो रहे थे। इसी कोमल परिस्थिति मे जसमित्र ने उन्हे पुन. सम्बोधित कर मानो सजग कर दिया । उसने कहा कि सुनो मित्रवर, तुम्हारी इस परम अभिलाषा की पूर्ति में तनिक सी बाधा है । यह अन्तराय ऐसा है जो तुम्हारे द्वारा की जाने वाली किसी देव की आराधना से ही दूर होगा। चिन्ता का विषय नही है-यह व्यवधान भी अवश्य ही समाप्त होगा और तुम्हारे मनोरथ की पूर्ति अवश्ययभावी है। इतना कह कर निमित्तन जसमित्र ने हाथ उठाकर अभिवादन किया और सहसा ही अपने मार्ग पर अग्रसर हो गया। ऋषभदत्त और धारिणीदेवी तो अद्भुत परिस्थितियो मे घिरे किंकर्तव्यविमूढ से ही बैठे रह गये । व्यवधान अवश्य ही दूर होगा- इस घोषणा ने व्यवधान के अस्तित्व को ही दुर्वल बना दिया था। एक नव उमग और उत्साह के साथ ये लोग भी आर्य सुधर्मा स्वामी के दर्शनार्थ आगे बढे। प्रफुल्लित मन और पुलकित तन श्रेष्ठि-दम्पति शीघ्र ही उस उपवन मे पहुंच गये जहाँ आर्य सुधर्मा की वाणी से लाभान्वित होने वाले श्रद्धालुओ की विशाल सभा जुडी हुई थी। श्रेष्ठि तथा धारिणीदेवी के मन में इस समय विशेप उत्साह उमड आया था । आर्य सुधर्मास्वामी के मगल दर्शन से ऋषभदत्त
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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