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________________ ६ | मुक्ति का अमर राही : जम्बूकुमार प्रश्न गढने के लिए वह शब्द जुटा ही रहा था कि स्वय धारिणी देवी ही मुखरित हो उडी । वह बोली कि भैय्या, तुम तो निमित्तज्ञ कहलाते हो । तुम्हे भी हमारी किसी परिस्थिति के कारणो की खोज इस प्रकार प्रश्नोत्तर द्वारा करनी पडेगी क्या ? फिर तुम्हारा वह निमित्तज्ञान क्या काम आयगा ! जरा अपनी इस प्रतिभा का चमत्कार भी तो दिखाओ। तुम तो अकथित रहस्य ज्ञात कर लेने की क्षमता रखते हो | फिर क्या मेरी चिन्ता का कारण मुझे ही व्यक्त करना होगा ? ___ जसमित्र को अपनी भूल का तनिक आभास हुआ और इसकी अभिव्यक्ति भी उसकी खिसियानी-सी क्षीण हँसी मे हो गयी। उसके मन मे जिज्ञासा और कुतूहल का भाव भी अगडाइयाँ लेने लगा, जिसने उसे यथाशीघ्र ही धारिणीदेवी की उदासी का मूल ज्ञात करने के लिए प्रेरित और उत्कण्ठित बना दिया । तुरन्त ही जसमित्र अपने उद्यम मे रत भी हो गया । कुछ क्षण गम्भीर होकर उसके नेत्र निमीलित कर लिये । तनिक से चिन्तन के पश्चात् वह गणना आदि की प्रक्रिया मे व्यस्त हो गया। कभी गणना के किसी परिणाम पर पहुंचने का प्रयत्ल करता, कभी पुन अंगुलियो पर गणना आरम्भ कर देता । मित्र पुन गम्भीर हो गया । ऋषभदत्त और धारिणीदेवी अब उत्कण्ठित हो उठे थे । उनकी दृष्टि जसमित्र के मुखमण्डल पर केन्द्रित हो गयी थी। वे मित्र के कण्ठ से नि सृत होने वाली वाणी की प्रतीक्षा करने लगे । जसमित्र इसी प्रकार कुछ क्षण मौन रहा और फिर कहने लगा कि भाभी मेरे निमित्तज्ञान के अनुसार तुम्हे जो चिन्ता प्राय कष्ट देती रहती
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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