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________________ दुराग्रही ब्राह्मण को कथा | १६३ गधे की पंछ ही हाथ मे आयी। उसने अत्यन्त हड़ता से पूंछ को पकड़ लिया । गधा इस सकट से अचकचाया और तेजी से दौड़ने लगा। ब्राह्मण भी उसे अपनी ओर खीचने प्रयास मे दौड़ने लगा । कुछ दूर तक ही दौडने पर वह थक गया । इधर गधे का वेग और बढ़ गया और परिणामतः ब्राह्मण गिर पडा किन्तु पूंछ को उसने नही छोडा । किसी काम को बीच में न छोडने की शिक्षा लेकर ही तो वह घर से चला था! अब वह गधे के पीछे-पीछे घिसटने लगा। उसका सारा शरीर लहूलुहान हो गया । अपनी पूंछ छुडा लेने के लिए गधा दुलत्तियाँ भी झाडता जा रहा था। किन्तु इन बाधाओ से ब्राह्मण कब विचलित होने वाला था । उसने पूंछ नही छोड़ी। इस बस्ती में यह एक नवीन कौतुक था । लोग इस दृश्य को देखकर आश्चर्य कर रहे थे कि इतना कष्ट पाकर भी यह युवक पूंछ को पकड़े हुए क्यो है ? छोड क्यो नही देता ? अन्त में जब कुछ लोगो ने एकत्रित होकर, सामने से आकर उस गधे को घेर लिया, तब वह थमा और इस प्रकार उस ब्राह्मण की प्राणरक्षा हुई थी, अन्यथा उस अल्पज्ञ ब्राह्मण ने तो एक अच्छे सिद्धान्त के अधानुकरण के दुराग्रह से अपने लिए मृत्यु को ही न्यौता भेज दिया था । हे स्वामी ! जम्बूकुमार को कोमलता के साथ सम्बोधित कर कनकधी कहने लगी कि आप भी सचेत हो जाइये । आपका यह हठ ठीक नहीं। यदि अब भी आप सावधान नहीं हुए तो, मुझे दुःख के साथ कहना पड़ता है कि आप भी वैसे ही विपत्ति मे फंस
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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