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________________ दुराग्रही ब्राह्मण की कथा । १५६ उसका परित्याग कर दे और फिर उसी की कामना मे प्रयत्नशील हो जायें-यह अनुचित है। सुख के लिए दु ख के काल मे मनुष्य भगवान को भजता है । सुख के काल मे इसीलिए वह भजन नहीं करता, कि उसे कोई इच्छा पूरी करानी ही नही होती है। अत. आप भी इस सुखी जीवन का आनन्द लीजिए, क्यों व्यर्थ के जजाल मे स्वय को ग्रस्त कर लेना चाहते हैं। कुछ क्षण मौन रहकर कनकश्री ने पुन कथन आरम्भ किया। वह कहने लगी कि मुझे ऐसा प्रतीत होता है कि सकल्प के नाम पर आपके मन मे दृढ दुराग्रह है, एक जिद है, जो आपके ध्यान को उपयोगी और हितकारी किसी अन्य विचार की ओर केन्द्रित नही होने देती है। इस हठ को छोडिये, कुमार ! यह हम सबके लिए घातक सिद्ध होगी। और दुराग्रह यदि अविवेक से सयुक्त हो, तब तो उसके हानिकारक प्रभाव की कोई सीमा.ही नही रहती। यदि आपको मेरे इस कथन मे अविश्वास की गन्ध -आती हो तो लीजिए मैं आपको ब्राह्मण कुमार की कथा सुनाती हूँ जो आपके इस अविश्वास को दूर कर देगी। कुमार धैर्य के साथ कनकश्री का कथन सुनते जा रहे थे। उनकी अचचल मुद्रा में कोई परिवर्तन नहीं आया। कोरे दुराग्रह के कारण व्यक्ति की कितनी दुर्गति हो जाती है इसे स्पष्ट करने वाली एक कथा हे मेरे स्वामी ! मैं आपको सुनाती हूँ। यह कहकर उसने, मूर्ख ब्राह्मण की कथा सुनाई. किसी ग्राम मे एक ब्राह्मण रहता था। वह युवक था, स्वस्थ
SR No.010644
Book TitleMukti ka Amar Rahi Jambukumar
Original Sutra AuthorN/A
AuthorRajendramuni, Lakshman Bhatnagar
PublisherTarak Guru Jain Granthalay
Publication Year1977
Total Pages245
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size8 MB
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